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( अथ रसिका छन्दः)
प्राकृतम्
दिअवरगण धरि जुअल, पुण विअ तिअलहु पअल,
इम विहि विहु छउ पअणि, जिम सुहइ सुससि रअणि,
इह रसिअउ मिअणअणि, ऐअदह कल गअगमणि ॥८६॥ [रसिका ]
८६ रसिका छंद:
द्विजवर गण (चतुष्कल गण) के युगल को धरो, फिर त्रिलघु गण; इस रीति से छः चरणों का विधान करो । हे मृगनयनी, हे गजगमनी, जिस तरह रात में चन्द्रमा सुशोभित होता है, वैसे ही यह एकादश मात्रा का (रसिका) छंद है। टिप्पणी- धरि, यह आज्ञा म० पु० ए० व० का रूप है। Vधर + इ । यहाँ अवहट्ठ 'इ' तिङ् विभक्ति पाई जाती है। अपभ्रंश में इस विभक्ति का कोई संकेत नहीं मिलता। पिशेल ने अपभ्रंश में आज्ञा म०पु०ए. व०व० में केवल 'उ' 'हि' का संकेत किया है, साथ ही सं० प्रा० से० चलता हुआ शुद्ध धातु (स्टेम) रूप या शून्य तिङ् विभक्ति रूप भी इनके साथ माना जा सकता है (दे० पिशेल 8 ४६७) । 'इ' का संकेत प्रो. भायाणी ने संदेशरासक की भाषा में अवश्य किया है, जहाँ आज्ञा म० पु० ए० व० में 'इ', '– हि', – इहि – अ (हमारा शून्य), 'असु' 'अह' इन अनेक चिह्नों का संकेत किया गया है। (दे० संदेशरासक भूमिका $ ६३) । इस 'इ' का विकास परिनिष्ठित अपभ्रंश में न होकर परिनिष्ठित अप० के 'हि' से देशी भाषा में चल पड़ा होगा। यही कथ्य रूप संदेशरासक में तथा यहाँ प्रा० पैं० में मिलता है। ('हि'>'इ') यह रूप प्राणता (एस्पिरेशन) का लोप करने पर निष्पन्न होगा ।
पअल<प्रकटा :- सं. 'ट' कई स्थानों पर म० भा० आ० में 'ल' हो गया है। यह प्रक्रिया ट> ड> ल (ळ्) के क्रम से है । इसी 'ट' का स्वर मध्यम होने पर हि. रा० में 'ड़' के रूप में विकास पाया जाता है ।
छउ षट्, 'उ' कर्ता कारक का चिह्न है ।
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[ १.८६
अणि पदानि म० भा० आ० में नपुंसक कर्ता-कर्म ब० व० विभक्ति 'आइँ' है, 'आणि' रूप अर्धतत्सम है । इससे ‘पआणि’ रूप बनेगा । इसे प्रा०चैं० की अवहट्ट में छंद की सुविधा के लिए 'पअणि' बना दिया गया है ।
जिम-यत् से बना हुआ क्रियाविशेषण है । अपभ्रंश - अव० में इसके दो रूप मिलते हैं; जिम-जेम, तिम-ते । ये दोनों रूप संदेशरासक में भी मिलते है, दे० संदेश, भूमिका ६ ७४ ।
उक्तिव्यक्तिप्रकरण की पूर्वी अवहट्ट में इसके एकार वाले रूप मिलते है:-जेम तेम (दे० डॉ. चाटुर्ज्या : उक्तिव्यक्तिप्रकरण की भूमिका $६८).
सुहइ. <शोभते. सुह + इ; हि० सुहाना, रा० सुवाबो ।
रसिअउ—–सं. व्याख्याकारों ने छंद का नाम 'रसिका' माना है, अतः यहाँ पुल्लिंग रूप में लिंगव्यत्यय माना जा सकता है, जो अपभ्रंश अव० की एक विशेषता है ।
ऐअदह- अपभ्रंश अव० रूप एग्गारह, इग्गारह, एआरह हैं । 'एअदह' संस्कृत से प्रभावित अर्धतत्सम रूप है। इसमें छंद: सुविधा के कारण 'ए' ध्वनि को ह्रस्व बना दिया गया है ।
जहा,
विमुह चलिअ रण अचलु, परिहरिअ हअगअवलु, हलहलिअ मलअणिवइ, जसु जस तिहुअण पिअइ,
वरणसि णखइ लुलिअ, सअल उवरि जसु फुलिअ ॥८७॥ ( रसिका)
८६. D. अथ रसिका । धरि-D. O. धर । इम - B. इअ । C. एम। विहु- B. C. विवि, D. विहि। छ–0. छिउ । पणिD. इणि। जिम - B. जिमु, C. जेम । जिम सुहइ - O सुहइ जु जेम । रअणि -D. रयणि । इह - A. एह, B. इउ, C. O. एहु । ऐअदह - A. C. एअदह, D. इहदह, O. इअदह । ८७ - विमुह - A. विमुहु । अचलु - A अचल । हअगअबलु - B. D. हयगयवलु । हलहलिअ - B. हलहलि । णिवइ - B. णरवइ । जसु - A. जस । पिअइ- A. D. पिबइ, O. पिवइ । वरणसि - A. B. C. D. वरणसि, K. वणरसि । उवरि -0. उअरि । जसु -A B C D जसु, K. जस । C. रसिका ।
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