SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 676
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा के दो प्रमुख छंद ६५१ (३० ल+ग), कलाधर (15 x १५ + ग), डमरु (३२ ल), जलहरण (३० अनियत + २ ल), कृपाशा (३० ल + 5)। इनके अतिरिक्त कवियों ने और भी प्रस्तारों का प्रयोग किया है। घनाक्षरी हिन्दी काव्यपरंपरा में सामान्यतः 'कवित्त' के नाम से प्रसिद्ध है। यह संज्ञा एक सामान्य संझा है, जो हिंदी में आकर विशिष्ट अर्थ का बोध कराने लगी है। हम देख चुके हैं कि 'काव्य' (कव्व) शब्द का प्रयोग कुछ पुराने कवि 'रोला' के विशेष प्रकार के लिये करते थे, कुछ कवि 'वस्तुवदनक + कर्पूर' से बने 'छप्पय' (दिवड्ड छन्द) को काव्य कहते थे । राजस्थान में 'छप्पय' को 'काव्य' की बजाय 'कवित्त' भी कहा जाने लगा था और पृथ्वीराजरासो में 'कवित्त' शब्द का प्रयोग घनाक्षरी के अर्थ में न होकर 'छप्पय' के लिये ही पाया जाता है। सोलहवीं-सत्रहवीं शती में राजस्थानी भट्ट कवि छप्पय को ही 'कवित्त' कहते थे । पृथ्वीराजरासो में 'घनाक्षरी' का तो नामोनिशान नहीं मिलता। मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में आकर 'कवित्त' शब्द 'घनाक्षरी' के अर्थ में रूढ हो गया है। 'घनाक्षरी' हिंदी कविता में अचानक आता है और एकाएक देखते देखते अपना आधिपत्य जमा लेता है। यह कहाँ से आया, यह वर्णिक छन्द का विकास है या मात्रिक छन्द का, इस विषय में अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। हिंदी में एक मत इसे संस्कृत के अनुष्टुप् छंद से जोड़ता है । इसके अनुसार रूप घनाक्षरी में ८, ८,८,८ पर यति पाई जाती है और इस प्रकार घनाक्षरी का समग्र चरण पूरे अनुष्टुप् छन्द से विकसित हुआ है । इसके अंतिम यतिखंड को एक अक्षर कम कर ८, ८, ८, ७ वर्णों पर यति-व्यवस्था करने पर 'मनहरण' का भी विकास हो सकता है। पर यह मत ठीक नहीं जान पड़ता । समग्र अनुष्टुप् छन्द की गति, लय और गूंज का घनाक्षरी तथा उसके मनहरण वाले भेद से कतई ताल्लुक नहीं जान पड़ता । श्रीसुमित्रानंदन पंत ने घनाक्षरी कवित्त को हिन्दी का औरस पुत्र न मानकर पोष्य पुत्र माना है। वे इसका संबंध बँगला के 'पयार' छंद से जोड़ते हैं, जिसमें प्रतिचरण १४ अक्षर तथा ८, ६ अक्षरों के यतिखंड पाये जाते हैं । कविवर पन्त की यह कल्पना भी संतोषजनक नहीं है, क्योंकि पयार के केवल एक अष्टाक्षर यतिखंड के आधार पर ही उसे कवित्त से जोड़ देना ठीक नहीं है और न इन दोनों की परस्पर लयगत समानता ही सिद्ध है। कवित्त के लक्षण से यह स्पष्ट है कि पादांत अक्षर को छोड़कर इसकी रचना में वर्णिक या मात्रिक गणों की रचना का कोई नियम नहीं पाया जाता । घनाक्षरी के लक्षण की मूलभित्ति ८, ८, ८, ७ या ८,८, ८,८ की यतिव्यवस्था है और मध्ययुगीन हिंदी कवियों ने इसका भी पूरी तौर पर पालन सर्वत्र नहीं किया है। कई कवियों में ८,८ के बजाय ७, ९ के यतिखंड भी मिलते हैं । आगे चलकर कुछ लक्षणकारों ने तो मनहरण में १६, १५ तथा रूप घनाक्षरी में १६, १६ अक्षरों के ही यतिखंड माने हैं । देव के कई कवित्तों में यह यतिव्यवस्था भी गडबड़ा दी गई है और यति छंदानुकूल न होकर अर्थानुकूल-सी बन गई है। यहाँ पहला यतिखंड १५ अक्षरों का भी मिलता है : सखिन के सोच गुरु-सोच मृगलोचनि, (१५ पर यति) रिसानी जिय सौं जु उन नैक हँसि छुओ गात । देव के यहाँ डा० नगेंद्र ने १४ अक्षरों के यतिखंड भी माने हैं, पर उनके तीनों उदाहरणों में स्पष्टतः १६ अक्षरों पर ही यति है, १४ पर नहीं । रत्नाकरजी 'घनाक्षरी-नियम-रत्नाकर' में कवित्त के यतिनियम का विशेष महत्त्व नहीं मानते । वस्तुतः विभिन्न कवियों की पाठन-प्रणाली और लय-योजना से इसका संबंध है और इसके पढ़ने में यतिव्यवस्था कई तरह की रही जान पड़ती है। घनाक्षरी हिंदी की अपनी प्रकृति का छन्द है, जिसका विकास संस्कृत की वर्णिक वृत्तपरंपरा से न होकर अपभ्रंशकालीन तालच्छंद परंपरा से ही हुआ जान पड़ता है। मूलतः कवित्त ऐसा छन्द जान पड़ता है, जिसके प्रत्येक अक्षर को चाहे वह गुरु हो या लघु एक ही मात्रिक समय-सीमा में उच्चरित किया जाता था । अक्षरों के परस्पर सटाकर १. डा० विपिन बिहारी त्रिवेदी : चंद बरदायी और उनका काव्य, पृ० २५२-५३ २. आधुनिक हिंदी काव्य में छंदयोजना पृ० १६० ३. पल्लव (प्रवेश) पृ० २६ ४. दे०- देव और उनकी कविता पृ० २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy