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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६३७ मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में दोहा प्रबंध और मुक्तक दोनों काव्यशैलियों का प्रिय छंद रहा है। यद्यपि दोहे का शुद्ध रूप ही मध्ययुगीन हिंदी कवियों के यहाँ मान्य रहा है, तथापि कबीर, जायसी और तुलसी के यहाँ ऐसे भी दोहे मिलते हैं, जिनके विषम चरणों में १३ मात्राओं के स्थान पर १२ मात्राएँ मिलती है। हिंदी के कुछ विद्वानों ने इन्हें छन्द का दुष्ट प्रयोग मान लिया है, लेकिन अपभ्रंश में दोहे के अनेक रूप प्रचलित रहे हैं और १२-११ : १२-११ वाला दोहा भी एक विशेष भेद है। कबीर और जायसी के दोहा प्रयोग के संबंध में विचार करते समय आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस तथ्य की ओर सबसे पहले संकेत किया है :
"पहले और तीसरे अर्थात् विषम चरणों में तेरह मात्राओं के स्थान पर बारह मात्राएँ भी हुआ करती थीं, इस तथ्य पर ध्यान न देने का परिणाम यह हुआ कि जायसी के संबंध में धारणा बनानी पड़ी कि उन्होंने तुलसी की अपेक्षा छन्दों की पिंगलसंबंधी व्यवस्था पर कम ध्यान दिया है। पर वास्तविकता है कि जायसी और तुलसी दोनों ने दोहे के विषम चरणों में कहीं कहीं बारह मात्राएँ ही रखी हैं ।"१ गोस्वामीजी के मानस में दोहे का यह विशेष प्रकार मिलता है। हम दो दोहे पेश कर सकते हैं :
प्रभु के वचन श्रवन सुनि, नहीं अघाहिं कपि पुंज । बार बार सिर नावहिं, गहहिं सकल पद कंज ॥ (लंकाकांड दो० १०६) मुनि जेहि ध्यान न पावहि, नेति नेति कह बेद ।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन, करत अनेक बिनोद ॥ (वही दो० ११७) डिंगल कवियों के यहाँ दोहे के विपरीत रूप 'सोरठा' (या सोरठियो दूहो) के अलावा इस छंद के दूसरे प्रस्तार भी मिलते हैं। इनमें दो भेद प्रसिद्ध हैं-'बडो दहो' (११-१३ : १३-११), और 'तंबेरी दहो' (१३ इन दोनों प्रकारों में तुक परस्पर उन्हीं चरणों में मिलेगी, जो ग्यारह मात्राओं वाले चरण हैं । जैसे, बड़ो दूहो
रोपी अकबर राड़, कोट झडै नह कांगरे ।
पटके हाथळ सीह पण, बादल व्है न बिगाड़ ।। तूंबेरी दूहो
ऊभी सूरिज साँमुही, माथा धोए मेटि ।
ताह उपन्नी पेटि, मोहण वेली मारुई ॥ दोहा छंद के गाते समय सम्पूर्ण छंद में बारह ताल पड़ती है। प्रत्येक चरण की प्रथम, पांचवी और नवी मात्रा पर ताल पड़ती है। इस दृष्टि से भी विषम चरणों में बारह मात्रा वाला दोहा गाने की दृष्टि से अधिक परिपूर्ण जान पड़ता है, जिसमें अंतिम तालखंड ४ मात्रा का होगा । १३-११, १३-११ वाले दोहे में भी तालव्यवस्था के अनुसार गाने वाले सम और विषम दोनों तरह के चरणों के अंतिम तालखंड (नवी मात्रा से शुरू होने वाले तालखंड) को चतुर्मात्रिक तालखंड की ही बंदिश-में गायेंगे, भले ही ये तालखंड मात्रा के लिखित रूप की गिनती की दृष्टि से विषम चरणों में पंचमात्रिक और सम चरणों में त्रिमात्रिक हों। सोरठा
६ १५७. सोरठा प्रसिद्ध अर्धसम चतुष्पदी छंद है, जो दोहे के सम चरणों को विषम तथा विषम चरणों को सम कर देने से बनता है। इसमें तुक प्रथम-तृतीय चरणों में मिलती है । प्राकृतपैंगलम् के अनुसार दोहे का विपरीत रूप ही सोरठा है तथा इसके प्रत्येक पद में तुक पाई जाती है। प्राकृतपैंगलम् के लक्षणोदाहरण पद्यों को देखने से पता चलता है कि इसमें दुहरी तुक पाई जाती है; एक विषम चरणों में, दूसरी सम चरणों में ।' विषम चरणों में ११ मात्रा तथा सम १. हिंदी साहित्य का अतीत (खण्ड १) पृ० १५३ २. मेनारियाः डिंगल में वीररस (भूमिका) पृ० २३ ३. भू, भूते ने भक्तिए, ताळ दोहरे धार । - दलपतपिंगल २.१३७ ४. प्रा० पैं० १.१७०
५. प्रा० पै० १.१७१
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