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प्राकृतपैंगलम् सोरठा के । स्वयंभू ने 'दोहा' के इन्हीं तीनों भेदों का जिक्र किया है और वे भी इनका लक्षण नंदिताढ्य के ही अनुसार मानते हैं । इससे यह संकेत मिलता है कि स्वयंभू के समय तक भी दोहा के सम चरणों के अन्त में गुरु अक्षर की स्थापना मानी जाती थी।
हेमचन्द्र ने भी 'दोहक', 'उपदोहक' तथा 'अपदोहक' का लक्षण इसी रूप में प्रस्तुत किया है। इनके अतिरिक्त हेमचन्द्र १३-११ : १३-११ मात्रा वाले छन्द और इसके उलटे रूप ११-१३, ११-१३ मात्रा वाले छन्द का भी संकेत करते हैं, पर वे इन्हें सर्वथा भिन्न छंद घोषित करते हैं । विषम चरणों में १३ मात्रा और सम चरणों में ११ मात्रावाले छन्द को स्वयंभू, हेमचन्द्र और राजशेखर 'कुसुमाकुलमधुकर' कहते हैं । इसी तरह ११-१३ : ११-१३ वाले छन्द को वे 'विभ्रमविलसितवदन' नाम देते हैं । हेमचन्द्र के 'कुसुमाकुलमधुकर' और 'दोहक' दोनों छन्दों की तुलना करने से पता चलेगा कि उनका 'दोहक' ही परवर्ती दोहे से अभिन्न है, 'कुसुमाकुलमधुकर' नहीं । (कुसुमाकुलमधुकर)
पत्तउ एहु वसंतउ, कुसुमाउलमहुअरु ।
माणिणि माणु मलंतउ, कुसुमाउहसहयरु ।। (६.२०.९४) (दोहक)
पिअहु पहारिण इक्किणवि, सहि दो हया पडंति ।
संनद्धओ असवारभडु, अन्नु तुरंग न भंति ॥ (६.२०.१००) हेमचंद्र के अनुसार दोनों छंदों के प्रत्येक चरण में पादांत लघु अक्षर को गुरु मानकर गणना की गई है। यदि हम अपनी गणना के अनुसार मात्रा गिनें, तो 'कुसुमाकुलमधुकर' में मात्रा-व्यवस्था १२, १० : १२, १० मालूम पड़ती है;
में १३, ११ : १३, ११ । गति, लय और गूंज की दृष्टि से भी हेमचंद्र का 'दोहक' ही दोहा है, 'कुसुमाकुलमधुकर उससे कोसों दूर है।
ऐसा जान पड़ता है, शास्त्रीय परम्परा के अपभ्रंश छंदःशास्त्री नंदिताढ्य, स्वयंभू, हेमचन्द्र और राजशेखर 'दोहक' का लक्ष्य वही मानने पर भी लक्षण में भेद मानते हैं । 'पादांतस्थं विकल्पेन' वाले नियम को वे 'दोधक' के संबंध में भी लागू करते हैं, जो बाद के छंदःशास्त्रियों को मान्य नहीं है। अपभ्रंश छंदःशास्त्रियों में कविदर्पणकार ने ही सर्वप्रथम इस पुरानी लक्षणप्रणाली को न मानकर 'दोहअ' का लक्षण १३, ११ : १३, ११ मात्रा दिया है, और अपने उदाहरणपद्य में पादांत लघु को एकमात्रिक ही गिना है वे कवि-आम्नाय का संकेत करते बताते हैं कि इस छंद के समचरणों के अंत में '51' की योजना होनी चाहिए । कविदर्पणकार का उदाहरणपद्य भी इस लक्षणपरिवर्तन का संकेत करता है :
जि नर निरग्गल गलगलह, मुग्गलु जंगलु खंति ।
ते प्राणिहि दोहय अहह, बहु दुह इहि बुटुंति ॥ परवर्ती अपभ्रंश कवियों के यहाँ 'दोहा' का यही परवर्ती लक्षण मान्य रहा है और प्राकृतगलम् तथा छन्दःकोश इसी का उल्लेख करते हैं ।
१. स्वयंभूच्छन्दस् ४.७, ४.१०, ४.१२ २. समे द्वादश ओजे चतुर्दश दोहकः । -
समे द्वादश ओजे त्रयोदश उपदोहकः । - छंदो० ६.२० की वृत्ति
ओजे द्वादश समे चतुर्दश अपदोहकः । - वही ६.१९ की वृत्ति ३. समे एकादश ओजे त्रयोदश कुसुमाकुलमधुकरः । - छंदो० ६.२० वृत्ति तथा स्वयंभू० ६.१००, राजशेखर ५.११६ ४. ओजे एकादश समे त्रयोदश विभ्रमविलसितवदनम् । - वही ६.१९ वृत्ति तथा स्वयंभू० ६.९९, राजशेखर ५.११५ ५. विषमसमपदकलाभिः क्रमात् त्रयोदशैकादशसंख्याभिः पुनर्दोहकः ।।
अत्राम्नायः । एतस्य दोहकस्य समपादे द्वितीये तुर्ये चान्ते गुरुलघू कुरु ।
एकादशकलासु अष्टकलोवं गुरूलघुभ्यामेव मात्रात्रयं पूरयेत्यर्थः । - कविदर्पण २.१५ वृत्ति ६. तेरह मत्ता विसम पइ, सम एयारह मत्त । अडयालीसं मत्त सवि, दोहा छंद निरुत्त ।। - छंद:कोश पद्य २१
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