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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६३५ (घ) मध्य में दो गुरु - - (उआसीण जत°. १३५ ग). दोहा के चतुर्मात्रिक गणों का विश्लेषण (क) समचरणों में --- (७३) 7 - - (१६) । (९०) (ख) विषम चरणों में ~~- (४४) . . . (११) (१८) ७० (१६) | दोहा के विषमपदगत त्रिकल का विश्लेषण - - - (७७) -- (१३) । (९०) हम बता चुके हैं कि दोहा अपभ्रंश का सबसे पुराना छंद है, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग हमें कालिदास के विक्रमोर्वशीय में मिलता है। इसके बाद सरहपा से तो इसका प्रयोग निरंतर चलता आ रहा है और यह अपभ्रंश मुक्तक काव्यपरम्परा का प्रिय छंद बना रहा है। अपभ्रंश प्रबंध काव्यों में अत्यधिक प्रयुक्त न होने पर भी धवल कवि के 'हरिवंशपुराण', देवसेनगणि के 'सुलोचनाचरित', धनपाल द्वितीय के 'बाहुबलिचरित' और यश:कीर्ति के 'पाण्डवपुराण' में 'दोहा' (दोधक या दोहडा) का घत्ता के रूप में प्रयोग मिलता है। मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में दोहा प्रबंधकाव्य और मुक्तक काव्य दोनों में समान रूप से स्थान पाता रहा है और भक्तिकाल और रीतिकाल में सवैया और घनाक्षरी के साथ महत्त्वपूर्ण छंदों में गिना जाता रहा है। दोहा का सर्वप्रथम संकेत करने वाले अपभ्रंश छंदःशास्त्री नंदिताढ्य है, जो इसे 'दूहा' कहते हैं। उनका लक्षण परवर्ती लक्षण से भिन्न अवश्य है, क्योंकि वे 'दोहा' की पादांत लघु ध्वनियों को गुरु मानकर इसका लक्षण १४, १२: १४, १२ मात्रायें मानते हैं। उनके उदाहरण में सम चरणों के अन्तिम 'लघु' अक्षर को गुरु मानकर द्विमात्रिक गिन लिया गया है, किंतु विषम चरणों की स्थिति का स्पष्टतः संकेत नहीं है, एक गणना से यहाँ १४ मात्रायें ठीक बैठती है, किन्तु 'भमंतएण' और 'झिज्जंतएण' की 'ए' ध्वनि का उच्चारण ह्रस्व मानने पर-जो ज्यादा ठीक अँचता है यहाँ भी परवर्ती दोहा का स्वरूप बन जाता है : लद्धउ मित्तु भमंतएण, रयणायरु चंदेण । जो झिज्जइ झिज्जंतएण, वड्डइ वटुंतेण ॥ (पद्य ८५) नंदिताढ्यने दोहा के अन्य दो भेद 'उवदूहा' (१३, १२ : १३ : १२) और 'अवदूहा' (१२, १४ : १२, १४) का भी उल्लेख किया है । 'उवदूहा' हमारे मूल दोहा के अधिक नजदीक जान पड़ता है, और 'अवदूहा' हमारे वक्ष्यमाण १. चउदह मत्ता दुन्नि पय, पढमइ तइयइ हुंति । बारहमत्ता दोचलण, दूहा लक्खण कंति ॥ - गाथालक्षण पद्य ८४ २. गाथालक्षण ८६ तथा ८८ ३. नंदउ वीरजिणेसरह, धरखुत्ती नहप॑ति । दंसंती इव संगमह, नरय निरन्तर गुत्ति ॥ - वही पद्य ८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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