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________________ ६३८ प्राकृतपैंगलम् चरणों में १३ मात्रा वाला अर्धसमचतुष्पदी का स्वयंभू, हेमचन्द्र और राजशेखर सूरि ने संकेत किया है, किंतु वे इसे 'विभ्रमविलसितवदन' नाम देते हैं। ये सभी छन्दःशास्त्री इस छंद में 'सोरठा' की तरह विषम चरणों में तुकव्यवस्था नहीं मानते । हेमचन्द्र ने 'विभ्रमविलसितवदन' का उदाहरण निम्न दिया है : 'कुइ धण्णु जुआणउ, विअसिअदीहरनयणिए । माणिज्जइ तरुणिए, विब्भअविलसियवयणिए । (कोई धन्य युवक ही विकसितदीर्घनयना विभ्रमविलसितवदना तरुणी के द्वारा संमानित किया (या मनाया) जाता है।) दोहे के विपरीत सोरठे का विषम पद वाला तुकांत रूप कविदर्पणकार के यहाँ मिलता है, किंतु वे इसे 'अवदोहक' नाम देते हैं । कविदर्पणकार के उदाहरण में स्पष्टतः तुकांतता केवल विषम चरणों में ही पाई जाती है : 'फुल्लंधुय धावंति, सहि सहरिस सहयारवर्णि । कोइलरवि मग्गंति, पाअव दोहय महुसमइ । (हे सखि, आम के वन की ओर भौंरे खुशी से दौड़ रहे हैं, और पेड़ कोयल के स्वर से वसंत ऋतु में दोहदयुक्त हो रहे हैं।) प्राकृतपैंगलम् और छन्दःकोश में ही सर्वप्रथम 'अवदोहक' के लिये 'सोरटु' (सोरठा) शब्द का प्रयोग मिलता है। संभवत: दोहे के विपरीत का रूप 'सौराष्ट्र' के कवियों और लोककवियों के यहाँ विशेष प्रचलित रहा है, फलत: इसे 'सोटु' नाम ही दे दिया गया । डिंगल के चारण कवियों के यहाँ भी इसे 'सोरठियो दूहो' कहा जाता है, जिसका अर्थ ही है, 'सौराष्ट्र का दोहा' । दोहे के उलटे 'अवदोहक या सोरठा' का प्रयोग बौद्ध सिद्धों के यहाँ भी मिलता है। मध्ययुगीन हिंदी कविता में दोहे के साथ साथ इसका भी प्रयोग मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास के 'मानस' में सोरठा मिलता है और कई सोरठों में तो गोस्वामी जी ने विषम एवं सम दोनों चरणों में दुहरी तुक की व्यवस्था कर इसमें नई गूंज भर दी है, जैसे : नील सरोरुह श्याम, तरुन अरुन बारिज नयन । करौ सो मम उर धाम, सदा छीरसागर सयन ॥ (बालकांड. ३) सोरठा छंद का उल्लेख केशवदास, श्रीधर, भिखारीदास, गदाधर प्रायः सभी मध्ययुगीन हिंदी छन्दःशास्त्रियों ने किया प्राकृतपैंगलम् में केवल दो सोरठा छंद मिलते हैं । छंद संख्या १.१७०-१७१ की गणव्यवस्था का विश्लेषण निम्न है: (अ) दोनों छंदों के षण्मात्रिक गण का विश्लेषण (१) मध्य में दो मात्रा सदा - - ।१२ ००० २५ % १. ओजे एकादश समे त्रयोदश विभ्रमविलसितवदनम् । - छन्दोनुशासन ६.१९ साथ ही दे० स्वयंभू० ६.९९, राज० ५.११५ २. अथ विनिमयेन विषमसमांघ्रिव्यत्ययेनैव दोहक एवावदोहकः । - कविदर्पण २.१५ वृत्ति ३. सो सोरटुउ जाणि, जो दोहा विवरीय हुइ । बिहुं पई जमकु वियाणि, इकु पहिलइ अरु तीसरइ ॥ - छन्दःकोश पद्य २५ ४. छंदमाला २.३९, छंदविनोद २.७, छंदार्णव ७.६, छंदोमंजरी ६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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