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________________ ६२८ प्राकृतपैंगलम् दामोदर और श्रीधर कवि का 'जलहरण' मूलत: गुर्वंत चरण का छंद था, भिखारीदास के यहाँ यह लघ्वन्त चरण का छंद हो गया है । भिखारीदास के भिन्न उदाहरण से इसकी पुष्टि हो सकती है। 'सुदि लयउ मिथुन रबि उमड़ि घुमड़ि फबि गगन सघन घन झपकि झपकि । करि चलति निकट तन छनरुचि छन छन खग अब झर सम लपकि लपकि ॥ कछु कहि न सकति तिय विरह अनल हिय उठत खिनहि खिन तपकि तपकि । अति सकुचित सखियन अध करि अँखियन लगिय जल हरन टपकि टपकि ॥ यह छंद पद्मावती, दुर्मिला आदि की तरह ही आठ चतुर्मात्रिक ताल में गाया जाता है । त्रिभंगी (मात्रिक) १९३. प्राकृतपैगलम् के अनुसार मात्रिक त्रिभंगी ३२ मात्रा वाला सममात्रिक चतुष्पदी छन्द है। इस छन्द की मात्रिक गणव्यवस्था का कोई संकेत नहीं मिलता, केवल १०, ८, ८, ६ पर यति और पादांत में गुरु (5) के विधान का संकेत है । त्रिभंगी छन्द में भी पद्मावती की तरह 'जगण' (151) चतुर्मात्रिक गण की रचना वर्जित है । लक्षणपद्य तथा उदाहरण से स्पष्ट है कि प्रथम तीन यतिखंडों में परस्पर 'तुक' मिलती है। यह तुक उदाहरणपद्य (१.१९५) के चारों चरणों में क्रमश: 'गंगं- अधंगं- अणंगं', 'हारं-सारं-'छार', ''चरणं- सरणं- हरणं' और 'वअणं-°णअणं -"सअणं' की योजना के द्वारा स्पष्ट है । 'वाणीभूषण में उल्लिखित लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है और लक्षणपद्य तथा उदाहरणपद्य दोनों में आभ्यंतर तुक व्यवस्था की पूरी पाबन्दी मिलती है । जैन कवि राजमल्ल को भी प्राकृतपैंगलम् का लक्षण ही स्वीकार है । वे पद के आभ्यंतर तीन 'प्रास' (यमक या तुक) का स्पष्ट संकेत करते हैं । फर्क इतना है कि जहाँ प्राकृतपैंगलम् और वाणीभूषण में जगण का प्रयोग सर्वथा निषिद्ध है, वहाँ राजमल्ल केवल चौथे, छठे और आठवें चतुर्मात्रिक गण के स्थान पर ही 'जगण' के प्रयोग का निषेध करते है। 'तिभंगी (?तिब्भंगी) छंदं, भणइ फर्णिदं, चउकल कंद, अट्ठ गणं, गुरु अन्ति गरिख (? गरि ), दह अटुटुं, तुरिए छहढे णहि जगणं । जिम जुवति चमक्कं, तिणि (?तिण्णि) जमक्कं, चरण अवकं वर उवमं, भणि भारहमल्लं, अरिउरसल्लं, णेहणवल्लं, भूप समं ॥ केशवदास की 'छन्दमाला' में स्पष्टतः जगण का निषेध मिलता है : विरमहु दस पर आठ पर वसु पर पुनि रस रेख । करहु त्रिभंगी छंद कहँ जगनहीन इहि बेष ॥ (छंदमाला २.४६) केशव की 'रामचंद्रिका' में 'त्रिभंगी' छन्द का अनेकशः प्रयोग हुआ है, पर केशव के 'त्रिभंगी' छन्द मात्रिक प्रकृति के ही हैं, वक्ष्यमाण वर्णिक प्रकृति की त्रिभंगियाँ वहाँ नहीं मिलती। एक निदर्शन निम्न है :१. छंदार्णव ७.३० २. पढमं दह रहणं, अट्ठवि रहणं, पुणु वसु रहणं, रस रहणं, अंते गुरु सोहइ, महिअल मोहइ, सिद्ध सराहइ, वरतरुणं । जइ पलइ पओहर, किमइ मणोहर, हरइ कलेवर, तासु कई, तिब्भंगी छंद, सुक्खाणंदं, भणइ, फणिदो, विमलमई ॥ इस लक्षणपद्य के चतुर्थ चरण में तुकव्यवस्था के अनुसार पाठ 'भणइ फर्णिदं' होना चाहिए, पर यह पाठ हमें किसी हस्तलेख में नहीं मिला, अन्यथा छंद की दृष्टि से हम इस पाठ को अधिक प्रामाणिक मानते । ३. वाणीभूषण १.११७-११८ । ४. हिंदी जैन साहित्य पृ० २३६ ५. केशव ग्रंथावली (खंड २) के परिशिष्ट (२) में "त्रिभंगी' लक्षण यह दिया है : 'दस वसु वसु रस पर विमल विरति धर जगनहीन कवि करहु जहाँ । भनि सातो गन जहँ संत सगन तहँ होत त्रिभंगी छंद तहाँ ॥ (पृ. ४२२) For Private & Personal use only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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