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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६२७ पर भानी है और यह तीसरे मत का संकेत करता है । दलपतपिंगल के अनुसार यह छन्द चार मात्रा की ताल में गाया जाता है और पहली दो मात्रा को छोड़ कर तीसरी मात्रा से हर चार चार मात्रा के बाद ताल पड़ती है। लीलावती की यही यतिव्यवस्था मानना हमें भी अभीष्ट है । दलपत भाई इस छन्द के अंत में 'सगण' का विधान न मानकर नियत रूप से 'दो गुरु' (55) की व्यवस्था का संकेत करते हैं। श्री रामनारायण पाठक ने इसे पद्मावती के ठीक पहले विवेचित किया है। दोनों के भेद का संकेत करते पाठकजी पद्मावती के प्रकरण में लिखते हैं :
'आ छन्द लीलावती प्रमाणे ज छे. तेमां विशेष ए छे के अहीं मध्ययतिथी पड़ता बे यतिखंडो ने प्रासथी जोडवाना छे, .... बीजो भेद ए छे के लीलावतीमां अंते बे गुरु आवे छे, आमां एक आवे छे."२ जलहरण ( या जनहरण)
$ १९२. प्राकृतपैंगलम् का जलहरण छन्द भी उक्त चारों छंदों के अनुसार ही ३२ मात्रा का सममात्रिक चतुष्पदी छन्द है । इस छन्द में अन्तिम अक्षर 'गुरू' (5) होता है, बाकी सभी मात्रायें लघ्वक्षर के द्वारा निबद्ध की जाती है । इस प्रकार इसमें ३० लघु और १ गुरु (३१ अक्षरों) के द्वारा प्रतिचरण ३२ मात्रायें निबद्ध की जाती ह । यतिव्यवस्था पद्मावती आदि छंदों से भिन्न है और प्राकृतपैंगलम् में इस छन्द की यतिव्यवस्था स्पष्टतः १०, ८, ८, ६ के यतिखंडों में नियत की गई है। यतिखंडों में 'अनुप्रास' (तुक, यमक) की व्यवस्था का कोई संकेत नहीं मिलता । प्राकृतपैंगलम् के उदाहरणपद्य के प्रथम-द्वितीय यतिखंडों के अंत में केवल तीसरे चरण में 'दलु-बलु' वाली आभ्यंतर तुक मिलती है, अन्य चरणों में इसका अभाव है ।" दामोदर के 'वाणीभूषण' में इसको लघुप्रसारी छन्द ही माना है, किंतु वहाँ यति की व्यवस्था १०, ८, १४ मानी गई है, साथ ही उदाहरणपद्य में प्रथम दोनों यतिखंडों के बाद तीन चरणों में नियत 'तुक' का प्रयोग मिलता है। किंतु 'वाणीभूषण' में इस छन्द को '३० ल, १ ग' (३१ वर्ण) वाला छन्द नियमतः नहीं माना गया है, बल्कि यहाँ अनेकगुरुत्व भी देखा जाता है। उदाहरणपद्य इसीलिये ३१ वर्णों का ३२ मात्रिक छन्द नहीं बन पाया है :
उपगम्य निभृततरमभिनवजलधरसुभगसुदर्शनचक्रधरं, सखि कथय हृदयरुजमुरगराजभुजममलकमलदलनयनवरम् । अतिकुटिलकठिनहठमपनय मयि शठ दर्शनमपि न ददासि चिरा-,
दचिरांशुलतासदृशी नवयौवनकांतिरचिरमिह रुचिरतरा ॥ (वाणीभूषण १.१२२) 'वाणीभूषण' के अनुसार यह छन्द पद्मावती और दुर्मिला का ही वह भेद है, जिसमें गुर्वक्षर दो चार से अधिक न हों, शेष मात्राएँ लघ्वक्षर के द्वारा निबद्ध की गई हों । इस तरह इन लघ्वक्षरों की संख्या नियत नहीं जान पड़ती ।
मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में इसकी स्वतंत्र सत्ता का संकेत श्रीधर कवि और भिखारीदास अवश्य करते हैं श्रीधर कवि इसमें प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार ३० ल, १ ग मानते हैं । भिखारीदास के यहाँ का जलहरण एक और विकास का संकेत करता है, जहाँ चरण की बत्तीसों मात्राएँ लघ्वक्षरों के द्वारा निबद्ध की गई हैं, और जब कि प्राकृतपैंगलम्, १. मात्रा बत्रीशे चरणमां, अंते तो गुरु बे आणो,
लीलावति नामे छंद भणावो, जति दश आठ उपर जाणो । त्रिजि कळ पर ताल पछी श्रुति श्रुति पर तेज रिते स्वरगति जाणो,
आ लोक विशे परलोक विशे प्रभु पद भजि पूरण सुख माणो ॥ - दलपतपिंगल २.११७ २. बृहत् पिंगल पृ० ३१७ ३. बत्तीस होइ मत्ता अंते सगणाइँ ठावेहि । सब्व लहू जइ गुरुआ, एक्को वा बे वि पाएहि ॥ - प्रा० पैं० १.२०३ ४. पअ पढम पलइ जहिं सुणहि कमलमुहि, दह वसु पुणु वसु विरइ करे । - प्रा० पैं० १.२०२ ५. दे० प्रा० पैं० १.२०४ ६. दशवसुभुवनैर्यतिरिह हि यदि भवति रसिकजनहृदयविहितमिदम् । - वाणीभूषण १.१२१
पद पदहि सरस कवि सुनहु रसिकमनि दस वसु वसु रस विरति जहाँ, फनिपति अति हित यह विरति सुबुध कह चरन चरम पर सुगुरु तहाँ । सब लघु करि धरहु करहु यह चित करि इमि रचि चतुर सुघर चरना,
कवि सिरिधर कहइ सजन चित धरि करि सुजस लहिअ यह जलहरना ॥ - छंदविनोद २.३८
८. लघु करि दीन्हे बत्तिसौ, जलहरना पहिचानि । - छंदार्णव ७.२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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