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प्राकृतपैंगलम्
उदाहरण में १०, ८,
सुन्दरता बढ़ जाती है और अंत में 'सगण' (115) होना चाहिए ।" इस छन्द में यतिव्यवस्था का कोई संकेत नहीं मिलता। १४ पर कहीं कहीं यति पाई जाती है, किन्तु यतिखंडों में आभ्यंतर तुक नहीं मिलेगी । 'घर लग्गइ अग्गि जलइ धह धह कइ दिग मग णहपह अणल भरे, सब दीस पसरि पाइक्क लुलइ धणि थणहर जहण दिआव करे । भअ लकिअ थक्तिअ वहरि तरुणि जण भइरव भेरिअ सद पले, महि लोट्टई पिट्ट रिउ सिर तुट्टइ जक्खण वीर हमीर चले ॥
दामोदर के 'वाणीभूषण' का लक्षणपद्य प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है, वे सिर्फ इतना संकेत अधिक करते हैं कि इसमें ८ चतुष्कल गणों की रचना कर ( 115 ), कर्ण ( 55 ) द्विजगण ( IIII), भगण (511), जगण (151) किसी भी तरह से की जा सकती है। वाणीभूषण में इसकी यति-व्यवस्था का कोई संकेत नहीं है। ऐसा जान पड़ता है, लीलावती में यति और यतिसंबंधी यमक (तुक) की आवश्यकता नहीं मानी गई है।
जैन कवि राजमल्ल के 'पिंगल' से इस छन्द के विषय में कुछ भिन्न तथ्य सामने आते हैं। उनके अनुसार इनमें ७ चतुष्कल और अन्त में सगण ( 115 ) की व्यवस्था होनी चाहिए। उक्त चतुष्कलों में 'नरेंद्र' (151, जगण) की वर्जना की जाय तथा ९, ९, १०, ४ पर प्रत्येक चरण में यति होनी चाहिए ।
लीलावइ छंदु गरिंदु गरिदविवज्जिय चउकल सत्त हिणं सगणं, णव णव दह चारि विरइ सरस्सर कर डंबर चारु चरण सघणं । सिरीमाल सुरिंद सुगंदण गुणि गण रोरु निकंदण जण सरणं, बब्बरं वंस अकबर साहि सनाषत भारहमल्ल भणं ॥ ३
उक्त छंद के चतुर्थ चरण में कुछ शब्द छूट गये जान पड़ते हैं। मैंने इसे उपलब्ध रूप में ही उदाहृत किया है। मध्ययुगीन हिंदी काव्य-परंपरा में यह छंद अप्रचलित सा रहा है। 'छंदविनोद' और 'छंदार्णव' इसका उल्लेख अवश्य
"
करते हैं। श्रीधर कवि के अनुसार इस छंद की यतिव्यवस्था ९ ९ ६, ८ है, बाकी लक्षण प्राकृतपैंगलम् का ही उल्था है।" श्रीधर कवि ने पाद के अंत में केवल गुरु ( 3 ) का विधान किया है, किंतु इनके उदाहरणपद्य में (जो लक्षण पद्य भी है), 'सगण' (115) की ही व्यवस्था मिलती है। 'छंदार्णव' में भिखारीदास का लक्षण अधिक स्थूल है; वे इसे पद्धरी का दुगना छंद मानते है और यति आदि का कोई संकेत नहीं करते। उनका उदाहरण निम्न है जिसमें वतिव्यवस्था नियमतः न तो राजमल्ल के अनुसार (९, ९, १०, ४ पर) ही है, और न श्रीधर के अनुसार (९, ९, ६, ८ पर) ही ।
पीतंबर मुकुट, लकुट कुंडल वन, माल वैसाइ, दरसावै ।
मुसुकानि विलोकनि, मटक लटक बढ़ि मुकुर छाँह तें, छबि पावै ।
मो बिनय मानि चलि वृंदावन, बंसी बजाइ, गोधन गावै,
तौ लीलावती, स्याम में तो में, नेकु न उर अन्तर आवै ॥ (छंदार्णव ६.४५ )
उक्त उदाहरण में यतिविधान प्रत्येक चरण में भिन्न कोटि का है, जिसका संकेत हमने अर्धविराम (,) चिह्न
के द्वारा किया है। लीलावती छंद के इस विवेचन से स्पष्ट है कि इसकी यति व्यवस्था के संबंध में ऐकमत्य नहीं रहा
है गुजराती पिंगलग्रंथ 'दलपतपिंगल' में इसकी यतिव्यवस्था पद्मावती, दंडकल, और दुर्मिल की तरह ही १०, ८, १४
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१. प्रा० ० १.१९०
२. वाणीभूषण १.११३
३. हिंदी जैन साहित्य पृ० २२४
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४. गुरु लघु नहि नियम नियम नहि अच्छर कल पद पद बत्तीस भरो,
नव कल विरमत विरमत नव पर पुनि रस पर वसु बाँटि धरो ।
गुरु चरनहि चरन अंत करि सुन्दर जसु विचार नव चित्त धरो इहि विधि कवि सरस चारु लीलावति लीलावति सम सुद्ध करो ॥ ५. छंदार्णव ६.४४
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छंदविनोद २.३४
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