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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६२५ इस सूत्र के पूर्व के सूत्र में १०, ८ पर यति कही गई है, अत: उसका प्रकरणवश अनुवर्तन यहाँ भी माना गया है और यहाँ भी 'जज' (१०, ८) पर यति मानी है, स्पष्टतः तीसरा यतिखंड १४ मात्रा का होगा ही । यह 'स्कन्धकसम' ही यतिभेद से 'मौक्तिकदाम' (१२, ८, १२ यति) और 'नवकदलीपत्र' (१४, ८, १० यति) बन जाता है। आठ चतुर्मात्रिक गणों के स्थान पर एक षण्मात्रिक, छ: चतुर्मात्रिक और एक गुरु की व्यवस्था करने पर ये तीनों छंद क्रमशः 'स्कन्धकसमा', 'मौक्तिकदाम्नी' और 'नवकदलीपत्रा' इन स्त्रीवाचक संज्ञाओं से अभिहित होते हैं। स्पष्टत: 'पद्मावती' और 'दुर्मिला' हेमचंद्र की 'स्कंधकसम' द्विपदी का ही द्विगुणित चतुष्पदी रूप है, और 'स्कंधसमा' द्विपदी का द्विगुणित रूप कहा जा सकता है । इस विषय का विशद विवेचन अनुशीलन के पिछले अंश में 'वर्णिक सवैया के उद्भव और विकास' शीर्षक के अंतर्गत द्रष्टव्य है।
दुर्मिल छंद 'डोमिल' के नाम से सर्वप्रथम अद्दहमाण के अपभ्रंश काव्य संदेशरासक में दो बार प्रयुक्त हुआ है। इसका द्विपदी और चतुष्पदी दोनों तरह का रूप वहाँ मिलता है। हम यहाँ चतुष्पदी वाले उदाहरण को विकासक्रम को जानने के लिए ले सकते हैं।
पियविरह विओए, संगमसोए, दिवसरयणि झुरंत मणे । णिरु अंग सुसंतह, बाह फुसंतह, अप्पह णिद्दय कि पि भणे ।। तसु सुयण निसेविय, भाइण पेसिय, मोहवसण बोलंत मणे ।
मइ साइय वक्खरु, हरि गय तक्खरु, जाउ सरणि कसु पहिअ भणे ॥ (संदेशरासक २.९५) केशवदास को 'छंदमाला' और 'रामचन्द्रिका' दोनों जगह मात्रिक दुर्मिल छंद नहीं मिलता, वहाँ इसके 'वर्णिक सवैया' वाले परिवर्तित रूप ही मिलते हैं । वणिक सवैया के द्वात्रिंशन्मात्रिक चतुर्विंशत्यक्षर भेदों के विकास से शुद्ध मात्रिक दुर्मिल का प्रचार मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में बहुत कम हो चला है। श्रीधर कवि के 'छंदविनोद' में मात्रिक प्रकरण में कोई 'दुर्मिल' छंद नहीं मिलता, वर्णिक वृत्त प्रकरण में अवश्य दुर्मिल सवैया का उल्लेख है।
नारायणदास के 'छंदसार' वाला दुर्मिल भी 'वर्णिक (आठ-सगण) छंद ही है। अकेले भिखारीदास के 'छन्दार्णव' में ही मात्रिक दुर्मिल का स्वतंत्र उल्लेख है, वे इसके पादांत में 'सगण' या 'कर्ण' (Is या 55) होना आवश्यक मानते हैं और यतिव्यवस्था 'पद्मावती' और 'दण्डकल' की तरह ही '१०, ८, १४' बताते हैं। हम इन तीनों छंदों का साम्यवैषम्य संकेतित करते हुए 'दण्डकल' के प्रकरण में भिखारीदास वाले दुर्मिल का उदाहरण दे चुके हैं, जो द्रष्टव्य है। पद्मावती
और लीलावती की तरह दुमिल भी चार मात्रा की ताल में गाया जाता है, जिसकी पहली दो मात्रा छोडकर तीसरी मात्रा से ताल देना आरंभ होता है। गुजराती पिंगल ग्रंथों में इसकी यतिव्यवस्था भिन्न मानी गई है। दलपतपिंगल ने इसमें १६-१६ मात्रा के दो ही यतिखंड माने हैं ।। लीलावती
१९१. लीलावती भी उपर्युक्त तीनों छन्दों की ही जाति का छंद है। प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इसके प्रत्येक चरण में ३२ मात्रायें होती है, किंतु गणव्यवस्था में लघु गुरु का कोई नियम नहीं है, इसके सम-विषम किसी भी स्थान पर 'जगण' (ISI) की रचना की जा सकती है, सम्पूर्ण छन्द में पाँच चतुष्कल एक साथ (निरन्तर) पड़ें, तो छन्द की १. छन्दोनुशासन ७.१९-२०
२. वही ७.२१ ३. छंदविनोद ३.१०४
४. छंदसार पद्य १४, पृ. ६
५. छंदार्णव ७.२३ ६. बधिये मळि मात्रा बत्रिश छे, पण एक गुरु अंते धरिये, विश्राम करी कळ सोळ कने, दुमिला ए विधि ए आदरिये । दुमिळा गणमेल थकी मळतो, कळतो ते तुल्य गणी करिये,
तजि बे पछि ताल तमाम तमे गणि आठ धरो श्रुति आंतरिये ॥ - दलपतपिंगल २.१३१ ७. गुरु लहु णहि णिम्म णिम्म णहि अक्खर पलइ पओहर विसम समं,
जहि कहुँ णहि णिम्मह तरल तुरअ जिमि परस विदिस दिस अगमगमं । गण पंच चउक्कल पलइ णिरंतर अन्त सगण धुअ कंत गणं,
परि चलइ सुपरि परि लील लिलावइ कल बत्तीस विसामकरं ।। - प्रा. पैं० १.१८९ Jain Education International
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