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प्राकृतपैंगलम् (दुर्मिला)
इक त्रियव्रतधारी, परउपकारी, नित गुरुआज्ञा-अनुसारी, निरसंचय दाता, सब रसज्ञाता, सदा साधुसंगति प्यारी । संगर में सूरो, सब गुनपुरो, सकल सुभाएँ सत्ति कहै,
निरदंभ भगति बर, बिद्यनि आगर, चौदह नर जग दुर्मिल है ॥ (७.२६) स्पष्ट है, ये तीनों छन्द एक ही मूल छन्द के प्ररोह हैं। दुर्मिल (मात्रिक)
६ १९०. पद्मावती और दण्डकल की तरह ही दुर्मिल (मात्रिक दुर्मिल) भी ३२ मात्रा वाला सम चतुष्पदी छन्द है। हम बता चुके हैं कि इनमें परस्पर फर्क केवल मात्रिक गणव्यवस्था और पादांत में व्यवस्थित ध्वनियों की दृष्टि से है। इन सभी छंदों की यतिव्यवस्था तक एक-सी ही (१०, ८, १४ यति) है । प्राकृतपैंगलम् के लक्षणानुसार इस छन्द के विषम स्थान पर 'कर्ण' (55) और बीचबीच में 'विप्र' (III) और 'पदाति' (सामान्य चतुष्कल) की योजना की जाती है। पादांत में 'सगण' (IIS) होना चाहिए, इसका कोई संकेत लक्षण में नहीं मिलता, किंतु लक्षणोदाहरण पद्यों में यह स्पष्टतः मिलता है। पद्मावती की तरह 'दुर्मिला' में 'जगण' (15) का प्रयोग निषिद्ध नहीं हैं और यह इन दोनों छन्दों का प्रमुख भेदक तत्त्व है। प्राकृतपैंगलम् के उदाहरणपद्य (१.१९८) में १०वीं और १८ वी मात्रा पर प्रतिचरण आभ्यंतर तुक की व्यवस्था पाई जाती है, जो 'धाला-णिवाला', 'चीणा-हीणा', उड्डाविअ-पाविअ', और 'भग्गिअ-लग्गिअ' से स्पष्ट है। दामोदर के 'वाणीभूषण' का लक्षणपद्य इस छन्द में केवल ८ चतुष्कल गणों की व्यवस्था का ही संकेत करता है। १०, ८, १४ पर यति का उल्लेख यहाँ अवश्य है, पर शेष बातों का उल्लेख नहीं है । 'वाणीभूषण' के लक्षणोदाहरण पद्यों में यतिखण्डों के स्थान पर आभ्यंतर तुक (यमक) की व्यवस्था नहीं मिलती। इससे अनुमान होता है कि बाद में कि इस बंधन को अनावश्यक समझ कर दुर्मिला से हटा दिया गया है ।
'यमुनाजलकेलिवि-, लोलविलोचन-, गोपीजनहृतवसनवरं, तटजातविशालत-, मालतरुणतरु-, दुर्गमशाखारोहपरम् । निजभुजमदमत्त-, भोजपतिमानस, संभृतदम्भविनाशकरं,
करचरणमयूखमु-, षितकमलं नम, लीलामानुषवेषधरम् ।' (वाणीभूषण १.१०४) 'वाणीभूषण' का उक्त उदाहरण छंद की दृष्टि से काफी त्रुटित है। प्रत्येक चरण का प्रथम यति खंड त्रुटित है, वहाँ समाप्त नहीं होता और तृतीय चरण में 'मदमत्त' के बाद यति पड़ती है, किंतु यह केवल नौ मात्रा का खंड है, इसकी एक मात्रा दूसरे खंड में मिलाकर उसे (भोजपतिमानस को) भी नौ मात्रा का यतिखंड बना दिया है - यह सारी गड़बड़ 'भो' गुर्वक्षर के कारण हुई है, जो १० वीं और ११ वी मात्राओं के द्वारा निबद्ध किया गया है।
दुर्मिल या दुर्मिला छंद इस नाम रूप में पुराने अपभ्रंश छन्दःशास्त्रियों के यहाँ नहीं मिलता, किंतु इससे मिलतीजुलती एक ३२ मात्रावाली द्विपदी 'स्कंधकसम' स्वयंभू, हेमचन्द्र और राजशेखर सूरि तीनों के यहाँ मिलती है। इस द्विपदी की रचना ८ चतुष्कलों के द्वारा की जाती है और प्रत्येक चरण में १०, ८, १४ मात्राओं के यतिखंड पाये जाते हैं । हेमचंद्र से इसका लक्षण निम्न है :
'चुः स्कन्धकसमम् ।
अजैरिति वर्तते । अष्ट चतुर्मात्राश्चेत्तदा स्कन्धकसमम् । १. दह वसु चउदह विरह करु विसम कण्ण पद देहु ।
अंतर विप्प पइक गण दुम्मिल छंद कहेहु ।। - प्रा० पैं० १.१९७ २. द्वात्रिंशन्मानं भवति पवित्रं फणिपतिजल्पितवृत्तवरं, दशवसुभुवनैर्यतिरत्र प्रभवति कविकुलहदयानन्दकरम् ।
यद्यष्टचतुष्कलकलितसकलपदमिति दुर्मिलकानामधरम्, नरपतिवरतोषण वन्दिविभूषण भुवनविदितसंतापहरम् ।। -वाणीभूषण १.१०३ ३. स्वयंभूच्छन्दस् ६.१७४, राजशेखर ५.१८७, छन्दोनु० ७.१८
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