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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
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जद्यपि जग करता, पालक हरता, परिपूरन बेदन गाए, तदपि कृपा करि, मानुषवपु धरि, थल पूछन हमसों आए। सुनि सुरबरनायक, रक्षसघायक, रक्षहु मुनि जस लीजै, .
सुख गोदावरितट, बिसद पंचवट, पर्नकुटी तहँ प्रभु कीजै ।। (रामचंद्रिका ११.१५) इस छंद के चतुर्थ चरण के चौथे चतुष्कल में 'जगण' (151, "दपंच) की व्यवस्था है, जो छंद की लय में दोष उत्पन्न करती है । भिखारीदास ने भी 'छंदार्णव' में पद्मावती में 'जगण' न देने का संकेत किया है। छंदविनोद, और छंदोमंजरी; इन लक्षण ग्रंथों में पद्मावती का उल्लेख मिलता है, पर कोई खास उल्लेखनीय बात नहीं पाई जाती ।
डा. वेलणकर मरहट्ठा और चौपैया की तरह पद्मावती को भी अर्धसमा द्वादशपदी मानते हैं; जो इसके मूल रूप का अवश्य संकेत करता है, किंतु मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा के संबंध में इसे चतुष्पदी मानना ही अधिक ठीक होगा। वे पद्मावती, दण्डकल, दुर्मिला, लीलावती इन चार छंदों को द्वादशपदी और जलहरण और त्रिभंगी को षोडशपदी मानते हैं, किंतु हिंदी में इनका चतुष्पदीत्व ही सिद्ध है। दण्डकल
६१८९. जैसा कि पद्मावती के संबंध में संकेत किया जा चुका है; दण्डकल भी ३२ मात्रिक सम चतुष्पदी है, जिसके प्रत्येक चरण में पद्मावती की ही तरह १०, ८, १४ मात्रा (३२ मात्रा) पर यति पाई जाती है। प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इसमें 'च च च च छ च च ग (5)' की गणव्यवस्था पाई जाती है। इस प्रकार पद्मावती में और इसमें यह फर्क है कि पद्मावती में ८ चतुष्कल गण होते हैं, यहाँ पाँचवाँ गण षट्कल निबद्ध किया जाता है और अंत में गुरु (5) होता है; दण्डकल में केवल ६ चतुष्कल गणों की ही व्यवस्था पाई जाती है । यति के स्थान पर पद्मावती की तरह ही यहाँ भी तुक (यमक) की योजना पाई जाती है। दण्डकल का स्वतंत्र उल्लेख वाणीभूषण में नहीं मिलता और केशवदास की 'छन्दमाला' और 'रामचंद्रिका' में भी इसका कोई चिह्न नहीं है। ऐसा जान पड़ता है, अधिकांश कवि और लक्षणकार इसे 'पद्मावती' में अंतर्भावित मानते जान पड़ते हैं। छंदविनोद, छंदसार आदि अन्य ग्रंथों में दण्डकल का उल्लेख नहीं है। केवल भिखारीदास ने अपने 'छंदार्णव' में 'दण्डकल' को स्वतंत्र छंद के रूप में निरूपित किया है। भिखारीदास षट्कल वाले भेदक तत्त्व का संकेत नहीं करते, वे सिर्फ इतना कहते हैं कि यहाँ १०, ८, १४ की यति और अन्त में 'सगण' (II) की व्यवस्था पाई जाती है । पद्मावती में अंत में 'सगण' (15) न होकर प्रायः 'मगण' (555) होता है और 'दुर्मिला' में 'सगण' के बाद फिर एक गुरु, (155) । छन्दार्णव से निम्न तीन उदाहरणों को उद्धृत कर इनका भेद स्पष्ट किया जा सकता है। (पद्मावती)
ब्यालिनि सी बेनी, लखि छबिसेनी, तजत न आसा मोरै जू, ससि सो मुख सोभित, लखि ह्यौ लोभित, लायत टकी चकोरैजू । निकसत मुख स्वासे, पाइ सुबासे, संग न छोड़त भौरैजू,
बाहिर आवति जब, पद्मावति तब, भीर जुरति चहुँ औरै जू ।। (७.२५) (दंडकला)
फल फूलनि ल्यावै, हरिहि सुनावै, ए है लायक भोगनि की, अरु सब गुन पूरी, स्वादनि रूरी, हरनि अनेकनि रोगनि की । हँसि लेहि कृपानिधि, लखि जोगी विधि, निंदहि अपने जोगनि की,
नभ ते सुर चाहैं, भागु सराहैं, फिरि फिरि दंडक लोगनि की ॥(७.२७) १. आठ चौकल परै, चारै रूप निसंक । भूलहु जगन न दीजिये, होत छंद सकलंक || - छंदार्णव ७.२४
अरु धणुद्धरु हअवरु गअवरु छक्कलु बि बि पाइक्क दले, बत्तीसह मत्तह पअ सुपसिद्धउ जाणउ बुहअण हिअअतले । सउबीस अठग्गल कल संपुण्णउ रूअउ फणि भासिअ भुअणे दंडअल णिरुत्तउ गुरु संजुत्तउ पिंगल अं जंपंत मणे ।
- प्रा० पैं० १.१७९ ३. दस बसु करि यों ही चौदह ज्यों ही अंत सगन है दंडकलो । - छंदार्णव ७.२३
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