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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६२९ 'जब जब धरि बीना, प्रकट प्रबीना, बहु गुनलीना, सुख सीता । पिय जियहि रिझावै, दुखनि भजावै, बिबिध बजावै, गुनगीता ।। तजि मतिसंसारी, बिपिनबिहारी, सुखदुखकारी, घिरि आवै ।। तब तब जगभूषन, रिपुकुलदूषन, सबकों भूषन, पहिरावै ॥' (रामचंद्रिका ११.२७) छन्दविनोद, छन्दार्णव और छन्दोमंजरी तीनो ग्रंथों में मात्रिक त्रिभंगी का उल्लेख है। ये सभी ग्रंथ यतिखंडों के स्थान पर उदाहरणपद्यों में तुक की व्यवस्था का पूरी तरह पालन करते हैं। गुजराती ग्रंथ 'दलपतपिंगल' में त्रिभंगी को तालव्यवस्था की दृष्टि से पद्मावती तथा लीलावती के ही अनुसार माना गया है, जहाँ तीसरी मात्रा से ताल शुरू कर हर चार चार मात्रा के बाद ताल दी जाती है। दलपत भाई के अनुसार भी त्रिभंगी के यतिखंड क्रमशः १०, ८, ८ और ६ मात्रा के हैं और यति के स्थान पर 'अनुप्रास' (तुक) की योजना आवश्यक है। श्री रामनारायण पाठक ने 'बृहत् पिंगल (पृ० ३१७) में त्रिभंगी छन्द की उत्थापनिका (उट्टवणिका) पद्मावती की ही तरह मानी है, फर्क इतना है कि यहाँ अंतिम यतिखंड (१४ मात्रा) पुनः दो यतिखंडों (८, ६ मात्रा) में विभक्त है तथा तीनों यतिखंड एक ही तुक के द्वारा आबद्ध हैं। "आ पछी त्रिभंगी लईए. ए पण पद्मावतीने मळतो ज छे. त्रिभंगी : दा दादा दादा' दादा दादा' दादा दादा' दादा गा. आमां पद्मावतीथी आगळ जई आठ मात्राए एक यति वधारे छे अने एथी थयेला त्रणेय यतिखंडो एक ज प्रासथी सांधेला छे." उक्त त्रिभंगी मात्रिक कोटि की है। प्राकृतपैंगलम् में अन्य त्रिभंगी भी मिलती है, जिसका उल्लेख वर्णिक वृत्त प्रकरण में है । यह वर्णिक प्रकृति की त्रिभंगी ३४ वर्णों (४२ मात्राओं) का समवर्णिक चतुष्पदी छंद है । मूलतः यह त्रिभंगी भी मात्रिक ही है, जिसका ३४ वर्णवाला वर्णिक विकास हो गया है। किंतु यह त्रिभंगी हमारी ४० मात्रावाली त्रिभंगी से भिन्न है। इसकी उट्टवणिका निम्न है : 'बीस लघ्वक्षर (॥ x १०)+ भगण (51)+55+सगण (15)+55+II+55=३४ वर्ण, ४२ मात्रा'२ इसकी यतिव्यवस्था का कोई संकेत लक्षणपद्य में नहीं है, पर उदाहरणपद्य से पता चलता है कि इसमें क्रमशः ८, ८, १२, ६, ८ पर यति पाई जाती है और इस तरह प्रत्येक चरण पाँच यतिखंडों में विभक्त होता है। इस योजना के कारण संभवतः डा० वेलणकर इस वर्णिक त्रिभंग को 'विंशत्पदी' (२० चरणों का छंद) मानना चाहेंगे। इसके प्रत्येक चरण में दुहरी तुक योजना मिलती है। प्रथम द्वितीय यतिखंडो की तुकयोजना एक-सी होगी। तृतीय-चतुर्थ-पंचम यतिखंडों की एक-सी और प्रायः प्रथम दो खंडों की तुकयोजना से भिन्न । यह बात निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जायगी। 'जअइ जअइ वर, वलइअविसहर, तिलइअसुंदरचंदं, मुणिआणंदं, सुहकंदं । वसहगमण कर, तिसुल डमरु धर, णअणहि डाहु अणंगं, रिउभंगं, गोरिअधंगं ॥ जअइ जअइ हरि, भुजजुअधरु गिरि, दहमुहकंसविणासा, पिअवासा, सुंदरहासा । बलि छलि महिअरु, असुरविलअकरु, मुणिअणमाणसहंसा, सुहभासा, उत्तमवंसा ॥ छंद की दृष्टि से प्रथम चरण का अंतिम अंश 'मुणिआणंद, सुहकंद' के स्थान पर 'सुहकंद, मुणिआणंदं' होना चाहिए, षण्मात्रिक यतिखंड चौथा होना चाहिए, अष्टमात्रिक यतिखंड पाँचवाँ; किसी भी हस्तलेख में उक्त पाठ नहीं मिला, १. छंदविनोद (२.१७), छंदार्णव (७.२३, उदाहरण पद्य ७.२८), छंदोमंजरी (पद्य सं० १२९, पृ० १०३) २. मात्रा दश आणो, आठ प्रमाणो, वळि वसु जाणो, रस दीजै, अंते गुरु आवे, सरस सुहाव, भणतां भावे, त्यम कीजे । लीलावती जेवा, ताळ ज देवा, त्रिभंगि तेवा, छंद करो, जति पर अनुप्रासा, धरिये खासा, सरस तमासा, शोधि धरो ॥ - दलपतपिंगल २.११९ ३. प्रा० पैं० २.२१४ ४. वही २.२१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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