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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६१९ चौथे-पाँचवें, सातवें-आठवें, दसवें ग्यारहवें पर अलग अलग आभ्यंतर तुक और तीसरे छठें; नवें-बारहवें में दलांत तुक की व्यवस्था होती है । इस प्रकार वे इसे एक दशमात्रिक, एक अष्टमात्रिक, और एक एकादशमात्रिक चतुष्पदी का मिश्रण मानते जान पड़ते हैं। हमें इसे चतुष्पदी ही मानना अभीष्ट है, क्योंकि प्राकृतपैंगलम् में और बाद में भी हिंदी कविता में और अन्यत्र भी यह चतुष्पदी रूप में ही दिखाई पड़ता है और यत्यंत आभ्यंतर तुक को हम केवल गायक के विश्राम और ताल के लिये संकेत देने वाला चिह्न मात्र मानते हैं । चौपैया + $ १८७. प्राकृतपैंगलम् में वर्णित चौपैया छंद ३० मात्रा का सममात्रिक चतुष्पदी छंद है। इसकी गणव्यवस्था 'सात चतुर्मात्रिक 5' है, सम्पूर्ण छंद में १२० मात्रा होती हैं । प्रायः इस छंद में चार चतुष्पदियों की एक साथ रचना करने की प्रणाली रही है, अकेले एक छन्द की रचना नहीं की जाती। इसीलिये प्राकृतपैंगलम् में चौपैया के पद्यचतुष्टय में '४८०' (१२० x ४) मात्राओं का संकेत किया गया है। प्राकृतपैंगलम् के लक्षणपद्य में इस छन्द की यतिव्यवस्था का स्पष्ट कोई संकेत नहीं है। दामोदर के 'वाणीभूषण' में यतिव्यवस्था अवश्य संकेतित है। इस छन्द में १०, ८, १२ मात्रा पर प्रतिचरण यति पाई जाती है और इसकी पुष्टि प्राकृतपैंगलम् के लक्षणपद्य तथा उदाहरणपद्य दोनों की रचना से होती है, जहाँ प्रत्येक चरण में दसवीं और अठारहवीं मात्रा के स्थानों पर तुक का विधान पाया जाता है। प्राकृतपैंगलम् के उदाहरणपद्य (१.९८) में यह क्रमश: गंगा-अधंगा, बीसा-दीसा, कंदा- चंदा, और दिज्जउ- किज्जउ की स्थिति से स्पष्टतः लक्षित होती है। वाणीभूषण के उदाहरणपद्य (१.६४ ) में भी यह आंतरिक तुक योजना मिलती है, किंतु वहाँ चौथे चरण में इसका अभाव है । 'कालियकुलगञ्जन, दुरितविभञ्जन, सज्जनरञ्जनकारी, गोवर्धनधारी, गोपविहारी, वृन्दावनसंचारी । हतदुर्जनदानव-, पालितमानव-, मुदिताखण्डलपाली, गोपालीनिधुवन, सुखरसशाली, भवतु मुदे वनमाली ॥' चौपैया की यतिव्यवस्था पूर्वोक्त मरहट्ठा छन्द से कुछ मिलती है, वहाँ भी पादांत के पूर्व की यति क्रमशः १० और ८ मात्रा के बाद ही पड़ती है। फर्क इतना है कि चरण का तृतीय यतिखंड 'मरहट्ठा' में ११ मात्रा का है, चौपैया में १२ मात्रा का; साथ ही 'मरहट्ठा' में पादांत में गुरु लघु (SI) की व्यवस्था पाई जाती है, जब कि चौपैया में पदांत में 'गुरु गुरु' (ss) या केवल 'गुरु' ( 5 ) भी प्रयुक्त होता है । ताल की दृष्टि से ये दोनों ही चतुर्मात्रिक ताल में गाये जाते हैं और दोनों में पहली ताल तीसरी मात्रा पर पड़ती है। चरणों की अन्तिम मात्रा को 'मरहट्ठा' में तीन मात्रा का प्रस्तार देकर और 'चौपैया' में दो मात्रा का प्रस्तार देकर गाया जाता है, ताकि सम्पूर्ण चरण बत्तीस मात्रिक प्रस्तार का बन सके। गुजराती ग्रंथ 'दलपतपिंगल' में ३० मात्रा का एक और छंद मिलता है, जो वस्तुतः 'चौपाया' का ही दूसरा भेद है, जिसमें यतिव्यवस्था ८, ८, ८, ६ मात्रा पर मानी गई है। इसे वहाँ 'रुचिरा' छन्द कहा गया है। इस छन्द में भी तालव्यवस्था चतुर्मात्रिक ही है, किंतु पहली ताल पहली मात्रा पर ही पड़ती है, और हर चार चार मात्रा के बाद ताल पड़ती है। 'रुचिरा' और हमारे 'चौपाया' का भेद निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जायगा । १. Apabhramsa Metres I 8 26. २. चउपइआ छन्दा, भणइ फणिंदा, चउमत्ता गण सत्ता, पाएहि सगुरु करि, तीस मत्त धरि, चउ अस ससि अ णिरुत्ता । छन्द लविज्जइ, एक्कु ण किज्जइ, को जाणइ ऐहु भेऊ, कइ पिंगल भासइ, छन्द पआसइ, मिअणअणि अमिअ एहू ॥ - प्रा० पैं० १. ९७ ३. यदि दशवसुरविभिश्छन्दोविद्भिः क्रियते यतिरभिरामं, सपदि श्रवणसमये नृपतिः कवये वितरति संसदि कामम् । - वाणीभूषण १.७३ ४. चरण चरणमा त्रीशे मात्र अंते तो गुरु एक करो, आठे आठे पढतां पाठे वळि थोडो विश्राम धरो । एक ऊपर पछि चारे चारे ताळ सरस लावो तेमां रुचिरा नामे छंद रूपाळो अल्प नथी संशय एमां ॥ - दलपतपिंगल २.११२ For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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