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________________ ६१८ केशवदास की 'छन्दमाला' और 'रामचंद्रिका' में इसका उल्लेख है और इसमें नियमतः आभ्यंतर तुक, १०, ८, ११ पर यति और पादांत में 51 का निर्वाह मिलता है। 'रामचंद्रिका' से एक निदर्शन यह है + प्राकृतपैंगलम् 'पढमं भूपालं, (पुणु) सिद्धिरिमालं, सिरिपुर पट्टणु वासु, पुणु आबूदेसिं, गुरु उवएसिं, सावय धम्म णिवासु । धण धम्महँ णिलयं, संघह तिलयं, रंका राउ सुरिंदु, ता वंस परम्पर, धम्म धुरंधर, भारहमल्ल गरिंदु ॥' केशव के बाद श्रीधर कवि (२.४०), नारायणदास वैष्णव (पद्य सं० ४१), भिखारीदास, ( ७.२२२-२३), गदाधर, प्रायः सभी मध्ययुगीन लेखक इस छंद का उल्लेख करते हैं। इन सभी छन्दोग्रंथों के लक्षणों और उदाहरणों में कोई खास नई बात नहीं मिलती । एक दिन रघुनायक, सीय सहायक, रतिनायक अनुहार, सुभ गोदावरि तट, बिसद पंचवट, बैठे हुते मुरारि । छबि देखतहीँ मन, मदन मथ्यो तन, सूर्पनखा तेहि काल, अति सुन्दर तनु करि, कछु धीरज धरि, बोली बचन रसाल ॥ ( रामचंद्रिका ११.३२) मरहट्ठा के एक विशेष प्रकार का प्रयोग १४ वीं शताब्दी की जैन रचना 'रोहिणीविधान कहा' में मिलता है, जहाँ उक्त गणव्यवस्था के बाद 'S' (गुरु) निबद्धकर ११, ८, १३ यति- खंडों के ३१ मात्रिक छंद का प्रयोग है। इसका केवल अंतिम यति- खंड ही 'मरहट्टा' से भिन्न है : डा० पुत्तूलाल शुक्लने 'मरहठामाधवी' नामक एक छंद का उल्लेख किया है, जहाँ 'मरहठा' की-सी व्यवस्था न होकर यतिव्यवस्था १६, १३ (२९ मात्रा) मानी है। इस छंद के अन्त में 55 होता है। वस्तुतः मध्ययुगीन 'मरहट्ठा' ही परिवर्तित होकर 'मरहठामाधवी' बन गया है । यति-व्यवस्था के परिवर्तन के साथ ही इसकी आभ्यंतर तुक, जो इसके आदिकालीन और मध्ययुगीन हिंदी रूप की परिचायक है, लुप्त हो गई है। डा० शुक्ल ने गुप्त जी के काव्यों में इस छंद के प्रयोग संकेतित किये हैं। एक निदर्शन यह है : - Jain Education International 'जिनवर वंदेविणु, भावधरेविणु, दिव्व वाणि गुरु भत्तिए । रोहणि उववासहो, दुरिय विणासहो, फलु अक्खमि णिय सत्तिए | इस छंद का संकेत गुजराती और मराठी काव्यपरंपरा में भी मिलता है। दलपतभाई ने इस छंद में चार चार मात्रा पर ताल मानी है और वे पहली ताल तीसरी मात्रा से शुरू करते हैं । माधवराव पटवर्धन मराठी से इसका उदाहरण यह देते हैं 'राधा चढ़े श्यामता हरि की । है उसके विधुमाल की । बलिहारी बलिहारी जय जय । गिरिधारी गोपाल की ॥२ रणशूर शहाजी-सून पहा जी धर्मप्रतिपच्चन्द्र, नृपनीतिविशारद शान्त दुरासद वैराग्याचा कन्द । प्रतिजनक गणा वा राम म्हणा हा वंद्य सदा शिवराय, नवराष्ट्रविधाता श्रेष्ठ मराठा कवन न तदयश गाय २४. श्री वेलणकर 'मरहट्ठा' छन्द को अर्धसमा द्वादशपदी मानते हैं, जिसके पहले, चौथे, सातवें, दसवें चरणों में दस मात्रा, दूसरे, पाँचवें, आठवें, ग्यारहवें चरणों में ८ मात्रा और शेष चरणों में ११ मात्रा पाई जाती हैं। इनमें पहले दूसरे, १. दस पर विरमहु आठ पुनि ग्यारह कला बखान ! गुरु लहु दीजै अंत यह मरहट्ठा परमान ॥ - छंदमाला २.४९ २. आधुनिक हिंदी काव्य में छंदयोजना पृ० ३०२ ३. तजि बे चच्चारे, ताळ ज धारे, त्यारे थाय निरांत ॥ - ४. छंदोरचना पृ० १३३-४ दलपतपिंगल २.११० For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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