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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६१७ बाद में तो हरिगीतिका और इसके वर्णिक भेद गीतिका का प्रयोग और भी कवि करते देखे जाते हैं । आधुनिक युग में भानु के 'छन्दप्रभाकर' में इसके रचनाक्रम का संकेत करते हुए बताया गया है कि इसके चतुष्कल गणों के स्थान पर 'जगण' का निषेध हो। इसकी गणव्यवस्था वे यों देते हैं :- २+३+४+३+४+३+४+५=२८ । इसके अंत में रगण माना गया है। आधुनिक हिंदी कवियों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इस छन्द के सम्राट् हैं, और उनकी 'भारत-भारती' और 'जयद्रथवध' का यह पेटेंट छन्द है । मरहट्ठा
१८६. प्राकृतपैगलम् के अनुसार 'मरहट्ठा' २९ मात्रा वाला सममात्रिक चतुष्पदी छन्द है। इसकी गणव्यवस्था '६, ५, ४, .... ।' है। बीच के गणों के विषय में कोई संकेत नहीं मिलता। आरंभ में षट्कल, पंचकल, और चतुष्कल, तथा अन्त में 'गुरु लघु' () की व्यवस्था आवश्यक है, शेष बीच की ११ मात्रा की गणव्यवस्था इच्छानुसार की जा सकती है। इसमें १०, ८ और ११ पर यति का विधान पाया जाता है । लक्षणपद्य और उदाहरणपद्य दोनों में यति के स्थान पर प्रतिचरण सदा आभ्यंतरतुक और चरणों के अन्त में 'क-ख', 'ग-घ' पद्धति की तुक मिलती है। दामोदर के 'वाणीभूषण' का लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है । इसके उदाहरण में १०, ८, ११ पर यति और प्रत्येक चरण की १० वीं और १८ वी मात्रा के स्थानों पर आभ्यंतर तुक पाई जाती है ।
अभिमतधनदाता, सिद्धिविधाता, जगदन्तरगतशील, दुरितद्रुमदाही, विश्वविगाही, कल्पक्षयकृतलील । भुवनत्रयवंदित, गिरिजानंदित, हरशिरसि स्थिरवास,
दह हुतवह पापं, देहि दुरापं वसुहततिमिरविलास ।। (वाणीभूषण १.१२६) पुराने लेखकों में मरहट्ठा छन्द केवल प्राकृतपैंगलम् में ही मिलता है, बाद में हिंदी गुजराती छन्दोग्रंथों में यह जरूर मिलता है। स्वयंभू में ऐसा कोई छन्द नहीं है। अकेले हेमचन्द्र ही एक अन्य २९ मात्रिक चतुष्पदी का संकेत करते हैं; यह 'मेघ' (रासक) है, जिसमें 'रगण' (515)+४ मगण (555) की व्यवस्था पाई जाती है । 'मेघ' (रासक) की यति-व्यवस्था के बारे में हेमचन्द्र ने कोई संकेत नहीं किया है। उदाहरण यों है :
'मेहयं मच्चंतं गज्जतं संनद्धं पेच्छंता, उब्भडेहिं विज्जुज्जोएहिं घोरेहिं मुच्छंता ।
केअईगंधेणोद्दामेसुं मग्गेसुं गच्छंता, ते कहं जीअंते कंताणं दूरेणं अच्छंता ॥ (छन्दो० ५. पद्य १३) (गरजते मदमत्त सन्नद्ध मेघ की देखते, घोर उद्भट विद्युद्योत से मूर्छित होते, केतकी गंध से उद्दाम मार्गों में जाते, प्रवासी जो अपनी प्रियाओं से दूर हैं, कैसे जीते हैं ?)
उक्त 'मेघ' (रासक) हमारे 'मरहट्ठा' से कतई संबद्ध नहीं जान पड़ता । हो सकता है कि 'मरहट्ठा' भी किसी न किसी तरह के 'रासक' का ही विकास हो । हम देख चुके हैं कि 'रासक' कोई खास अपभ्रंश छन्द न होकर उन अनेक छन्दों की सामान्य संज्ञा है, जो 'रास' नृत्य के साथ गाये जाते रहे हैं।
मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में मरहट्ठा छन्द संभवतः प्राकृतपैंगलम् में उपलब्ध आदिकालीन हिन्दी भट्टकवियों की परम्परा से ही आया है। मध्ययुगीन हिंदी कविता के अपने पेटेंट छन्दों में तो यह है नहीं, पर प्राय: सभी हिंदी छन्दोग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है और केशव ने 'रामचन्द्रिका' में भी इसका अनेकशः प्रयोग किया है। जैन पंडित राजमल्ल के 'पिंगलशास्त्र' में इसका लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही ढंग पर निबद्ध है। उदाहरण निम्न है :
१. भानु : छन्दप्रभाकर पृ० ६९ २. एहु छंद सुलक्खण, भणइ विअक्खण, जंपइ पिंगल णाउ, विसमइ दह अक्खर, पुणु अट्ठक्खर, पुणु एगारह ठाउ ।
गण आइहि छक्कलु, पंच चउक्कलु अन्त गुरू लहु देहु, सउ सोलह अग्गल मत्त समग्गल भण मरहट्ठा एहु ।। - प्रा० .० १.२०८ ३. वाणीभूषण १.१२५ ४. रो मीर्मेघः । रगणो मगणचतुष्टयं च मेघः । (छंदो० ५.१३) ५. दे० 'हिंदी जैन साहित्य का इतिहास' परिशिष्ट (१) पृ० २३५
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