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________________ १.७८] मात्रावृत्तम् [३९ ७७. नंद स्कंधक का उदाहरण कोई कवि काशीराज की प्रशंसा कर रहा है:- हे काशीश, चंद्रमा, कुंद, काश, हार, हीरा, त्रिलोचन (शिव), कैलाश-जितने भी संसार में श्वेत पदार्थ है, उन सबको तुम्हारी कीर्ति ने जीत लिया है। . टिप्पणी:- चंदा....केलासा. प्रायः ये सभी शब्द एक वचन में हैं, किंतु अंत में 'आ' देखकर यह भ्रम हो सकता है कि ये बहुवचन में होंगे । अवहट्ठ में छन्द के लिए किसी भी ह्रस्व स्वर को दीर्घ या दीर्घ स्वर को ह्रस्व बना देना मामूली बात है। जेत्ता यावत् ब०व० (तु० अवधी, जेते, तेते. अवधी के लिए दे० डो. सक्सेना $ २६४ पृ., २०८-२०९ 'रघुपति चरण उपासक जेते'- तुलसी). तेत्ता<तावत् ब०व० । जिण्णिआ<जिण्ण+इआ (निष्ठा. ब०व०), सं० जिताः । कित्ती. (कित्ती+ई, दे० तगारे ६ ९७ पृ. १९७; तगारे ने इस बात का संकेत किया है कि प्राकृतपैंगलं में करण. ए० व० सुप् विभक्ति 'ई' पाई जाती है। मेरी समझ में हम यहाँ "कित्ती+०,' रूप मानकर कर्मवाच्य 'जिण्णिआ' के कर्ता (करण) में शून्य विभक्ति मानें तो अधिक संगत होगा । इस तरह यह इस तथ्य का एक उदाहरण माना जा सकता है कि करण तथा कर्मवाच्य कर्ता में भी अवहट्ठ (प्रा० पैंगल की भाषा) में शून्य रूप चल पड़े थे। दूसरे शब्दों में इसमें भी शुद्ध प्रातिपदिक रूप का प्रयोग चल पडा है, जो परवर्ती परसर्ग के प्रयोग के लिए भूमि तैयार कर रहा है। अह दोहा, तेरह मत्ता पढम पअ, पुणु एआरहिँ देह । पुणु तेरह एआरहइ, दोहा लक्खण एह ॥७८॥ [दोहा] ७८. दोहा छंद: प्रथम चरण में तेरह मात्रा, फिर (द्वितीय चरण में) ग्यारह मात्रा दे, फिर (तीसरे चौथे चरणों में) क्रमश: तेरह और ग्यारह मात्रा दे । यह दोहा छंद का लक्षण है। दोहा विषम मात्रिक छंद है, इसकी मात्रायें १३, ११ : १३, ११ हैं । टिप्पणी-पढम पअ-दोनों अधिकरण कारक ए० व० के शून्य रूप है, अर्थ 'प्रथम चरण में'। एआरह<एकादश; दे० पिशेल ६ ४४३, महाराष्ट्री तथा अप० में एआरह-ऍग्गारह दो रूप मिलते हैं । ऍग्गारह रूप प्रा० पैं० में भी मिलता है। अर्धमा० में इसके एक्कारस, इक्कारस रूप मिलते हैं। टिसिटोरी ने प्रा० प० राज० में इग्यारह, इग्यार, अग्यार रूपों का संकेत किया है, दे० % ८०; हि० ग्यारह, रा० ग्यारा । देह V देह आज्ञा० म० पु० एक व० का विभक्ति चिह्न । अपभ्रंश-अवहट्ठ में आज्ञा म०पु०ए०व० के चिह्न निम्न है:- (१) शून्य विभक्ति (जाण), (२) ह (देह) (३) उ विभक्ति (देहु) (४) इ विभक्ति (देहि) । जहा, सुरअरु सुरही परसमणि, णहि वीरेश समाण । ओ वक्कल ओ कठिणतणु, ओ पसु ओ पासाण ॥७९॥ [दोहा] ७९. दोहा छंद का उदाहरण: सुरतरु (कल्पवृक्ष), सुरभि (कामधेनु), स्पर्शमणि ये तीनों वीरेश (राजा) के समान नहीं हैं। यह (कल्पवृक्ष) तो लकडी तथा कठोर शरीर का है, वह (सुरभि) पशु है, तथा वह (स्पर्शमणि) पत्थर है। ७८. तेरह-C. तेर । देह-A. देहु, B. देहि । एआरहहिँ-A. एआरह, C. एआरहँहि, D. K. एआरहहि, ०. एगारहहि । लक्ख णC. लख्खण, D.लष्षणु । एह-A. एहु, B. एहि । ७९. णहि-C. नहि । वक्कल-B. वक्कलु । ओ-K. अरु । तणु-D. तण । पासाण-C. पाषाण (=पाखाण) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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