SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०] प्राकृतपैंगलम् [१.८० टिप्पणी-वकलरवल्कल ('ल्क' की 'ल' ध्वनि परवर्ती 'क' के कारण 'क' हो गई है, यह परसावर्ण्य का निदर्शन है ।), तु०रा० बाकळो (भूसा) । इस पद्य की भाषा पुरानी हिंदी का स्पष्ट उदाहरण है तथा इसे मध्यकालीन हिंदी के विशेष समीप माना जाना चाहिए । यदि यहाँ 'ण' के स्थान पर 'न' कर दिया जाय, तो यही पद्य व्रजभाषा का हो सकता है । भमरु भामरु सरहु सेवाण, मंडूक मक्कडु करहु । णरु मरालु मअगलु पओहरु, बलु वाणरु तिण्णि कलु ॥ कच्छ मच्छ सर्दूल अहिवरु । वध्य विराडउ सुणह तह, उंदुर सप्पपमाण । गुरु टुट्टइ बे लहु वढइ, तं तं णाम विआण ॥८०॥ [रड्डा] ८०. दोहा छंद के भेदों के नाम: भ्रमर, भ्रामर, शरभ, श्येन, मंडूक, मर्कट, करभ, नर, मराल, मदकल, पयोधर, बल, वानर, त्रिकल, कच्छप, मत्स्य, शार्दूल, अहिवर, व्याघ्र, बिडाल, शुनक, उंदुर, सर्प-दोहा छंद के ये २३ भेद होते हैं । हर भेद में एक एक गुरु टूटता जाता है, दो दो लघु बढ़ते जाते हैं, इस ढंग से तत्तत् भेद का तत्तत् नाम जानो । छब्बीसक्खर भमर हो गुरु बाइस लहु चारि । गुरु टुइ बे लहु वढइ तं तं णाम विआरि ॥८१॥ [दोहा] ८१. छब्बीस अक्षर, बाईस गुरु तथा चार लघु (इस तरह ४४+४=४८ मात्रा) होने पर भ्रमर दोहा छंद होता है। इसमें से एक एक गुरु टूटे तथा दो लघु बढ़े तो तत्तत् भेद का नाम विचार लो। टिप्पणी-हो- हो+० वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० में शून्य विभक्ति या केवल धातु रूप (स्टेम) का प्रयोग (अर्थ–'होता है')। चारिरचत्वारि; इसका संकेत प्राकृतपैंगल के तीन पद्यों से जिनमें एक यह भी है, पिशेल ने भी किया है, दे० पिशेल ६ ४३९ पृ. ३१३ । पिशेल ने इसकी व्युत्पत्ति ऐसे मानी है :- चत्वारि-*चात्वारि-*चातास्-ि*चाआस्-िचारि प्रा०प०रा० में इसमें 'य' का आगम होकर 'च्यारि' रूप पाया जाता है, दे० टेसिटोरी ८० 'च्यारि' (योगशास्त्र, इंद्रियराज० पंचाख्यान); हि० चार, राज० चार-च्यार । विआरि < विचारय (वि+Vआर (चार)+इ आज्ञा म० पु० ए० व० । जहा, जा अद्धंगे पव्वई, सीसे गंगा जासु । जो देआणं वल्लहो, वंदे पाअंतास ॥८२ ॥ [दोहा-भ्रमर] ८२. भ्रमर दोहा छन्द का उदाहरण जिनके अर्धाग में पार्वती है तथा सिर पर गंगा है, जो समस्त देवताओं को प्यारे हैं, में उनके (शिव के) पैरों की वन्दना करता हूँ। ८०. भामरु-0. भ्रामरु । सरहु-D. रडु (=रड्डु) । सेवाण-A. सखाण, D. K. सेचाण, N. सेवाण (तु० श्येनः- सं०) । मंडूक 0. मंडुअ । मक्कडु-K. मक्कड़, मक्कलु । मअगलु-०. मअअंधु । पओहरु-0. पअहरु । करहु-A. करण । बलु-N, चलु, 0. चल । तिण्णि कलु-N. तिण्णिअलु । कच्छ मच्छ-C. D. कछ मछ (=कछ्छ मछ्छ), K. कच्छ मछ्छ। अहिवरु-0. अहिवर । उंदुस्-N. उंदुरु, D. उंदरु । वढइ-A. वलइ, B. C. चढइ, D. K. O. चलइ, N. वढइ । ८१. D. दोहा । छब्बीसक्खस्-B. "खर, C. छव्वीसख्खर, D. छबीसष्पर । लहु-C. लह । वढइ-A. N. वढइ, C. K. O. चलइ, C. चढइ । विआरि-A. विआरी, D. बिआरि, 0. वीआरि। ८२. D. अथ भमर दोहा । अद्धंगे-A. अद्धङ्गो । जासु-B. यासु, ०. वासु । देआणं-A. देआणं, B. C. D. देवाणं K. N. लोआणं। वंदे पाअं-0. पाअं वंदे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy