SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८] प्राकृतपैंगलम् [१.७५ णंदउ भद्दउ सेस सरंग, सिव बंभ वारण वरुण । णीलु मअण तालंक सेहरु, सरु गअणु सरहु विमइ ॥ खीर णअरु णरु णिद्ध णेहलु ॥ मअगलु भोअलु सुद्ध सरि, कुंभ कलस ससि जाण । सरहसेसससहर मुणहु सत्ताइस खंधाण ॥७५॥ [राजसेना] ७५. स्कंधक के सत्ताइस भेद होते हैं:- नंद, भद्र, शेष, सारंग, शिव, ब्रह्मा, वारण, वरुण, नील, मदनताटंक, शेखर, शर, गगन, शरभ, विमति, क्षीर, नगर, नर, स्निग्ध, स्नेह, मदकल, भूपाल, शुद्ध, सरित, कुंभ, कलस, ससि हे प्राकृतकवि (शरभशेषशशधर), इसके इतने भेद समझो । निर्णयसागर प्रति में स्कंधक के अट्ठाइस भेद माने हैं, जो लक्ष्मीनाथ की टीका के अनुसार है। कुछ अन्य टीकाकारों ने भी स्कन्धक के २८ भेद माने हैं जो ठीक नहीं । वे मदनताटंक को एक भेद न मानकर दो भेद मानते हैं। विश्वनाथ ने इसका खण्डन किया है। इस पद्य के अन्तिम चरण का 'सरभसेसससहर' पद समस्तपद है, इसकी व्याख्या टीकाकारों ने 'शरभशेषशशधराः प्राकृतकवयः' की है तथा इसे संबोधन माना है। इसी आधार पर हिन्दी में इसकी व्याख्या 'प्राकृतकवि' की गई है। चउ लहु कत्थवि पसर जहिँ सो सहि णंदउ जाण । गुरु टुट्टइ बि बि लहु वढइ तं तं णाम विआण ॥७६॥ [दोहा] ७६. उक्त २७ स्कंधक भेदों में प्रथम भेद (नंद) का संकेत करते हैं। 'हे सखि, जहाँ कहीं भी चार लघु आयें, उसे नंद नामक स्कंधक समझो । एक एक गुरु टूटता रहे तथा दो दो लघु बढ़ते रहे तो स्कंधक के उन उन नामों (अन्य भेदों) को समझो ।' इस तरह नंद स्कंधक में ३० गुरु तथा ४ लघु होंगे । टिप्पणी-कत्थविरकुत्रापि । पसर. / पसर+० (वर्तमान कालिक रूप); वर्तमान कालिक क्रिया में कभी कभी अवहट्ठ में केवल धातु रूप (स्टेम) का ही प्रयोग पाया जाता है। जहिँ यस्मिन् (यत्र) । जाण, विआण, V जाण+o Vविआण+०. आज्ञा. म० पु० ए० व० । टुट्टइ-टुट्ट (< त्रुट्) +इ; वर्तमान; प्र० पु० ए० व०; हि० टूटना, रा० टूटवो. वढइ. Vवढ+इ. (सं०वर्धते). वर्त० प्र० पु० ए० व०, हि० बढना, राज० बढ़बो० । जहा, चंदा कुंदा कासा, हारा हीरा तिलोअणा केलासा । जेत्ता जेत्ता सेत्ता तेत्ता कासीस जिण्णिआ ते कित्ती ॥७७॥ [नन्द-स्कंधक]. (इति गाथाप्रकरणम् ।) ७५. D. प्रतौ-रड्ड छंदः । णंद-B. C. D. णंद । सरंग-N. सारंग । सिव-0. सिब । मअण-0. मअणु णिद्ध-N. सिद्ध । णेहलु-0.णेहणु । मअगलु-0. मअगण । भोअलु-A.C. लोलउ; B. भूअलु, D.N. भोलउ, K. भोअलु, ०. भोलइ । सत्ताइसB.C. D. N. O. अट्ठाइस, K. सत्ताइस। (C. प्रतौ छंदःसंख्या न दत्ता) । ७६. चउ-B. C. O. अट्ठ वि लहुआ । जहि-C. अँहि, D. जहि । जाण-D. जांण । बि बि-०. वे । वढइ-A. बड़इ, 0. चलइ । ७७. D. नंदस्कंधकं, तेत्ता-C. प्रतौ एतन्न प्राप्यते । सेत्ता-0. प्रतौ एतन्न प्राप्यते । जिण्णिआ-D. जित्तिआ । ते-A. तो । कित्ती-D. कित्ति । C. गाथाप्रकरणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy