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________________ १.७३] मात्रावृत्तम् [३७ विढेि वृष्टिं । तप्पड़ Vतप्प+इ < तपति वर्तमान प्र० पु० ए० व० 'प' का द्वित्व । भुअणे<भुवने; अधिकरण कारक ए० व० । जग्गन्तो /जग्ग+अंतो, सं० *अंत (शत), वर्तमानकालिक कृदंत प्रत्यय । णिदइ-/णिद+इ वर्तमान प्र० पु० ए० व० ।। इंदं<इंद्र (रेफ का लोप) । सरसर्य ('य' का लोप) । अह खंधआ (अथ स्कंधक), चउमत्ता अट्ठगणा पुव्वद्धे उत्तरद्ध होइ समरूआ । सा खंधआ विआणहु पिंगल पभणेइ मुद्धि बहुसंभेआ ॥७३॥ (खंधआ) ७३. स्कंधक छंदः हे मुग्धे, जहाँ पूर्वार्ध में चतुर्मात्रिक आठ गण हों तथा उत्तरार्ध में भी समरूप (उतने ही) गण हों, उसे बहुत भेद वाला स्कंधक छंद समझना चाहिए; ऐसा पिंगल कहते हैं । टिप्पणी-उत्तरद्ध < उत्तरार्धे (उत्तरद्ध+शून्य, अधिकरण ए० व. विभक्ति) । सा खंघआ-अपभ्रंश वाला लिंगव्यत्यय यहाँ भी देखा जा सकता है । दे० ६ ६८ । विआणहु-इसका वैकल्पिक रूप 'विआणेहु' भी प्रा० पै० में मिलता है । जहा, जं जं आणेइ गिरिं रइरहचक्कपरिघट्टणसहं हणुआ । तं तं लीलाइ णलो वामकरत्थंहिअं रएइ समुद्दे ॥७४॥ [स्कंधक] ७४. उदाहरण हनुमान् सूर्य के रथचक के घर्षण को सहनेवाले (अर्थात् अत्यधिक उत्तुङ्ग) जिस जिस पर्वत को लाते हैं, नल उसी उसी पर्वत को लीला से बायें हाथ में थाम कर समुद्र में (सेतु के रूप में) विरचित कर देता है। यह सेतुबन्ध महाकाव्य के अष्टम आश्वासक का ४३ वाँ पद्य है। काव्यमाला के संस्करण में वहाँ इसका पाठ 'चक्कपरिमट्टसिहरं हणुआ ("चक्कपरिमृष्टशिखरं हनुमान्) तथा वामकरुत्थंबिअं (वामकरोत्तंभित्त) है। टिप्पणी-आणेइ ८ आनयति । हणुआ-इसका वैकल्पिक रूप 'हणुमा' सेतुबन्ध (काव्यमाला) में तथा प्रा० पैं० की अन्य प्रतियों में भी मिलता है। सं० 'हनुमत्' के हलन्त प्रातिपदिक का अजंत प्रतिपादिक करते समय अंत में स्वर को दीर्घ बना दिया गया है। लीलाइ-'इ' प्राकृत में आकारांत स्त्रीलिंग शब्दों में करण ए० व० की विभक्ति है। इसका विकास सं० 'या' (रमया) से हुआ है; दे० पिशेल ६ ३७४-३७५ । रएइ < रचयति (/रअ+इ+इ) प्रथम 'इ' संस्कृत चुरादि गण के विकरण '(अ) य' का विकसित रूप है। द्वितीय 'इ' प्राकृत के वर्तमान प्र. पु. ए. व० का तिङ् विभक्ति चिह्न है । ७३. B. D. K. अथ स्कंधकं । चउ-A. चौ । अट्ठ-C. अठ्ठ । उत्तरद्ध-A. उत्तद्ध, C. O. उत्तद्धे । होइ-A. वि होंति, B. वि अ, D. हो । समरूआ-A. समरूआं, B. समरूवा । सा-B. C. D. सो । पभणेइ-B. C. भणेइ । मुद्धि-B. मुद्धिणि । संभेआ-B. संभेदा । ७३-C. ७५ । ७४. आणेइ-C. आनेइ । रइरह B. रइरथ , C. रविरह । “परिघट्टण° A. परिषट्टण', B. 'परिग्घसण , C. परिहठ्ठण° K. 'परिहट्टण । हणुआ-0. हणुमा । लीलाइ C. लालाइ । णलो-D. नलो । वामकरुत्थंहिअं C. कामकरुसल्लिअं, D. चामकरुत्थभिअं; K.0. वामकरत्थंभिअं। ७४-C. प्रतौ छंदःसंख्या न दत्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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