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________________ ३६] प्राकृतपैंगलम् [१.७१ पिंगल कहते हैं, हे मुग्धे, सुनो, जहाँ पूर्वार्ध में तीस मात्रा तथा उत्तरार्ध में बत्तीस मात्रा हो, वहाँ गाहिनी छंद होता है, इसके उलटे छंद को सिंहिनी कहना चाहिए । टिप्पणी-सुणेहि /सुण+हि, आज्ञा म०पु०ए० व० वैकल्पिक रूप सुणहि । पुव्वद्ध-पुव्वद्ध+शून्य, अधिकरण ए० व० विभक्ति । पभणेइ-/पभण+इ वर्तमान । प्र० पु० ए० व० वैकल्पिक रूप पभणइ । भणु-/भण+उ आज्ञा म० पु० ए० व० अपभ्रंश तिङ् विभक्ति । गाहिणी जहा, मुंचहि सुंदरि पाअं अप्पहि हसिऊण सुमुहि खग्गं मे । कप्पिअ मेच्छशरीरं पच्छइ वअणाइँ तुम्ह धुअ हम्मीरो ॥७१॥ [गाहिणी] ७१. गाहिनी का उदाहरण: रणयात्रा के लिए उद्यत हम्मीर अपनी पत्नी से कह रहा है:- 'हे सुंदरि, पाँव छोड दो, हे सुमुखि, हँसकर मेरे लिये (मुझे) खड्ग दो । म्लेच्छों के शरीर को काटकर हम्मीर नि:संदेह तुम्हारे मुख के दर्शन करेगा । टिप्पणी-मुंचहि (/मुंच+हि), अप्पहि (Vअप्प+हि) दोनों आज्ञा म० पु० ए० व० के रूप हैं। पाअं-पाअ+अं कर्म ए० व० । हसिऊण *हसित्वान (हसित्वा) 'ऊण' के लिये दे० ६६९ । कप्पिअ-कप्प+इअ (पूर्वकालिक प्रत्यय) पच्छड । पेच्छ+इ; वर्तमान प्र० पु० ए० व० । वअणाइ < वदनानि; नपुं० कर्म ब० व० (इ-ई नपुं. कर्ता-कर्म ब० व०) तुम्ह<तव 'तुम्हारे' (मुँह को) दे०६६७ । सिंहिणी जहा, वरिसइ कणअह विढि तप्पइ भुअणे दिआणिसं जग्गंतो । णीसंक साहसंको णिदइ इंदं अ सूरबिंबं अ ॥७२॥ [सिंहिणी] ७२. सिंहिनी का उदाहरण:कवि साहसांक (संभवतः नवसाहसांक मुंज) की स्तुति कर रहा है: यह साहसांक नि:शंक होकर इन्द्र तथा सूयबिंब दोनों की निंदा कर रहा है (दोनों को अपनी वर्षणशीलता तथा तेजस्विता से ध्वस्त कर रहा है) । (इन्द्र केवल पानी बरसाता है, किंतु) साहसांक सोने की वृष्टि करता है, (सूर्य केवल दिन में ही तपता है, किंतु) यह दिनरात जाग्रत रहकर समस्त भुवन में तपता रहता है। टिप्पणी-वरिसइ वर्षति (V'वर्ष' में रेफ के बाद 'इ' का आगम होने से प्रा० अप० धातु Vवरिस है। Vवरिस+ इ वर्तमान प्र० पु० ए० व०) कणअहरकनकस्य; 'ह' अपभ्रंश में संबंध कारक ए० व० का चिह्न है; दे० पिशेल ६३६६ । पिशेल ने प्राकृतपैंगलं के कणअह के अतिरिक्ति चंडालह, कव्वह, फर्णिदह, कंठह, पअह रूपों का संकेत किया है; साथ दे० तगारे ६८३८३ अ । ७१. मुंचहि-C. मुंचसि । हसिऊण-A. B. हसिऊणे, C. हसिउण । खग्गं-C. खग्गा । मेच्छसरीरं- B. C. D.O. मेछ' (=मेछ्छ)। पच्छइ A. पेक्खइ, B. पेक्खाइ, C. पेछइ (=पे छई), 0. पेछिह । वअणाइँ-B. वअणाई, C. (वअ) णा (इ), D. वअणाणि, K. वअणाइ । तुम्ह-A. तुहइ B.C. N. तुम्ह, D. तुम्म, ०. तुंभ । K. तुमह । हम्मीरो-A. हम्मेरो, ०. हंवीरो। ७१C. ७४ । ७२. C. सीधीणी, D. अथ सिंहिणी । C. प्रतौ 'वरिसइ कणअह विट्टि' इति पद्यं न प्राप्यते । कणअह-D. कणयह। विर्द्धि-B. वृठ्ठी । भुअणे-A. भुअणो, B. भुअणेहि। दिआणिसं-B. D. दिवाणिसं । णिदई-B. शिंदेइ, D. जिंदई । अ-अ-D. K.O. च (उभयत्र), ७२-A. B. C. K. ७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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