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________________ ६१० (काव्य) जनमु कहा बिन जुवति जुवति सु कहा बिन जोबन । कह जोबन बिन धनहि कहा धन बिन अरोग तन ॥ तन सु कहा बिन गुनहि कहा गुन ज्ञानहीन छन । ज्ञान कि विद्याहीन कहा विद्या सु काव्य बिन ॥ (वही ७.३८) भिखारीदास के दोनों उदाहरणों की तुलना से स्पष्ट है कि वे 'रोला' में १२, १२ की यति मानते हैं, किंतु 'काव्य' में ११, १३ की । इससे स्पष्ट है कि रोला में ११ वीं मात्रा पर यति होना आवश्यक नहीं समझा जाता रहा है | २४ मात्रा के पूरे चरण को एक साँस में पढ़ना असंभव होने के कारण कभी १४ वीं पर, कभी ११ वीं पर, कभी १२ वीं पर, और कभी ८वीं और १६वीं मात्रा पर विश्राम लिया जाता रहा है । जगन्नाथदास रत्नाकर के 'गंगावतरण' काव्य में ग्यारहवीं मात्रा पर यति और उसके लघुत्व का नियमतः पालन नहीं मिलता। वैसे इस काव्य में अनेक स्थलों पर इसकी पाबंदी है, किन्तु अन्यत्र रत्नाकर जी ने खुद लिखा है, "रोला छंद की ग्यारह मात्राओं पर विरति होना आवश्यक नहीं है, यदि हो तो अच्छी बात है । २" I आधुनिक हिंदी कवियों ने 'रोला' का निर्माण तीन अष्टकों (८, ८, ८) को रख कर किया है। पंत, निराला, दिनकर आदि कई आधुनिक हिंदी कवियों ने रोला में रचना की है निरालाजी ने 'राम की शक्तिपूजा' में तीन अष्टकों (८, ८, ८) के आधार पर बने छंद का प्रयोग किया है। यह छंद 'रोला' के ही वजन पर बना है, किंतु कई छंदों में पादांत में 'SI' या '151' (जगण) की व्यवस्था भी मिलती है, जो शास्त्रीय 'रोला' से भिन्न लय तथा प्रवाह को जन्म देती है : है अमा निशा उगलता गगन घन अन्धकार खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवन - चार; अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल भूधर ज्यों ध्यान मग्न; केवल जलती मशाल । ४ किंतु इसके अतिरिक्त पादांत में 'दो लघु' वाले भी कई छंद निराला की इस कविता में मिलेंगे प्राकृतपैगलम् लख शंकाकुल हो गये अतुलबल शेष-शयन- खिंच गये हगों में सीता के राममय नयन; फिर सुना - हँस रहा अट्टहास रावण खलखल, भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता दल 1 रोला छन्द हिंदी का काफी प्रिय छन्द रहा है, जिसकी ऐतिहासिक परम्परा सरहपा तक परिलक्षित होती है। मूलतः यह केवल २४ मात्रा का सममात्रिक चतुष्पदी छन्द है जिसके यतिव्यवस्था तथा पादांत वर्णव्यवस्था के अनुसार एक से अधिक भेद पाये जाते हैं। गुजराती पिंगल ग्रन्थों में भी इसका १२, १३ मात्रा पर यति वाला भेद (काव्य) ही विशेष प्रसिद्ध है । इस छन्द में चार चार मात्रा के खण्डों की तालव्यवस्था पाई जाती है। प्रत्येक चरण की पहली, पाँचवीं, नवीं, तेरहवीं, सतरहवीं और इक्कीसवीं मात्रा पर ताल दी जाती है । गंधाण (गंधा) $ १८३. प्राकृतपैंगलम् के मात्रिक वृत्त प्रकरण में 'गंधाण' एक ऐसा छंद है, जिसके लक्षण में इसकी चरणगत मात्राओं की संख्या का कोई संकेत न कर अक्षरों (वर्णों) की संख्या का संकेत किया गया है। इसके प्रथम - तृतीय (विषम) चरणों में १७ वर्ण तथा द्वितीय चतुर्थ (सम) चरणों में १८ वर्ण होते हैं तथा चरणों के अन्त में 'यमक" पाया जाता है।' - १. डा० पुतूलाल शुक्ल २. नागरीप्रचारिणी पत्रिका सं० १९८१ पृ० ८१ Jain Education International आधुनिक हिंदी काव्य में छन्दयोजना पृ० २८८ ३. डा० शुक्ल वही पृ० २८९ ४. अनामिका पृ० १५० ५. वही पृ० १५२ ६ दलपतपिंगल २.१०३ ७. हम बता चुके हैं कि प्राकृतपैंगलम् में 'यमक' शब्द भिन्नार्थक स्वरव्यंजन समूह की पुनरावृत्ति (धमकालंकार) के अर्थ में प्रयुक्त न होकर केवल 'तुक' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। ८. प्रा० पै० १.९४, १.९५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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