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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६०९ पिछले दिनों जिनपद्मसूरि ने 'थूलिभद्द फागु' में इसी छंद का प्रयोग किया है। यहाँ भी मुख्य यतिव्यवस्था १४वीं मात्रा पर ही पाई जाती है :
'कन्नजुयल जसु लहलहंत किर मयण हिंडोला, चंचल चपल तरंग चंग जसु नयणकचोला ।
सोहइ जासु कपोल पालि जणु गालि मसूरा, कोमल विमलु सुकंठ जासु वाजइ सँखतूरा ॥ इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जिनपद्म सूरि ने इस छंद के अंत में सर्वत्र 'दो लघु' की व्यवस्था की पाबंदी नहीं की है। उनके 'रोला' छंदों में चरणांत में '55', '(151)' (जगण), तथा 'जा' (भगण) तीनों तरह के रूप मिलते हैं। इन सभी भेदों में भगणांत छंद ही बाद के रोला के विशेष समीप है। प्राकृतपैंगलम् के लक्षणपद्य तथा उदाहरणपद्य के चरण 'भगणांत' (झंपिअ-कंपिअ) तथा 'द्विगुर्वंत' (55) दोनों तरह के हैं। आगे चलकर 'भगणांत' रोला ही विशेष प्रसिद्ध हो चला है । प्राकृतगलम् और पुरानी रचनाओं में यह छंद 'क-ख' 'ग-घ' की तुक-व्यवस्था का पालन करता है, किंतु कहीं कहीं चारों चरणों में एक ही 'तुक' का प्रयोग भी पाया जाता है, जैसे सरह के उक्त रोला में । मध्ययुगीन हिंदी कविता में रोला के चारों चरणों में एक ही तुक का निर्वाह पाया जाने लगा है।
मध्ययुगीन हिंदी छंदःशास्त्रियों में 'रोला' का सर्वप्रथम संकेत जैन कवि राजमल्ल के 'पिंगलशास्त्र' में मिलता है। वे इसकी गणव्यवस्था में पादान्त में नियमत: गुरु मानते हैं और ११, १३ पर यतिव्यवस्था का उल्लेख करते हैं। केशवदास ने इसे 'कवित्त' (काव्य) छन्द कहा है। वे इसकी यतिव्यवस्था और गणव्यवस्था का कोई संकेत नहीं करते । केशवदास के 'कवित्त' (रोला) छन्दों में ११, १३ पर नियत यति पाई जाती है; ग्यारहवीं मात्रा 'लघु' और प्रत्येक चरण के अंत में 'दो लघु' (1) पाये जाते हैं।
'सुभ सूरज कुल कलस, नृपति दसरथ भए भूपति । तिनके सुत पुनि चारि, चतुर चितचारु चारुमति ॥ रामचन्द्र भुवचन्द्र, भरत भारत भुव भूषन । लछिमन अरु सत्रुघ्न, दीह दानव कुल दूषन ॥
(रामचंद्रिका १.२२) भिखारीदास ने 'छन्दार्णव' में 'रोला' और 'काव्य' दोनों छन्दों का अलग अलग जिक्र किया है। वे 'काव्य' को रोला का ही वह भेद-विशेष मानते हैं जिसमें ग्यारहवीं मात्रा लघु होती है । भिखारीदास के उदाहरणों में भी यह भेद स्पष्ट है :
(रोला)
रबिछबि देखत घूघू घुसत जहाँ तहँ बागत । कोकनि को ताही सों अधिक हियो अनुरागत ॥ त्यों* कारे कान्हहि लखि मनु न तिहारो पागत हमकों तौ वाही ते जगत उज्यारो लागत ॥
(छन्दार्णव ५.२०७)
१. वही पृ० ४२४ २. (क) झिरिमिरि झिरिमिरि झिरिमिरि ए मेहा वरिसंति ।
खलहल खलहल खलहल ए वादला वहति ॥ - वही पृ० ४२२ (ख) गमगम गमगम गमगम ए कानिहि वरकुंडल ।
झलमल झलमल झलमल ए आभरणहँ मंडल || - वही पृ० ४२३ ३. प्रा० पैं० १.९२ ४. रोडउ छन्द फर्णिदु वत्तु चउठीह (? चउवीह) सुमत्तै,
पढम होइ छह मनत्तभारित गणइ (? मत्त चारि चगणइ) गुरु अंतै । गारह तेरह विरह (? विरह) कित्ति चक्कवइ सरूपं,
देवदत नंदन दयाल भारहमल भूपं ॥ - पद्य. १३० - हिंदी जैन साहित्य पृ. २३८ ५. प्रतिपद 'केसवदास' भनि करि मत्ता चौबीस ।
चौपद करहु कबित्त जग प्रगट कस्यो अहिईस || - छंदमाला २.२३ ६. रोला में लघु रुद्र पर, काव्य कहावै छंद । - छंदार्णव ७.३७
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