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________________ ६०८ प्राकृतपैंगलम् चरणों के द्विपदीखंड को मिश्रित कर बनाये गये 'दिवड्ड' छंद का भी वहाँ संकेत है। स्वयंभू ने अन्य २४ मात्रिक छंद 'उत्साह' का जिक्र किया है, जिसकी गणव्यवस्था '४+४+४+४+४+४' (छ: चतुर्मात्रिक गण) है। अन्य अपभ्रंश छंदःशास्त्रियों के यहाँ इस मात्रिक प्रस्तार के और भी कई छंद संकेतित है। १. उत्साह २४ (४ x ६) स्वयंभू (४.५), हेम० (५.२), कविदर्पण (२.२६), २. वस्तुवदनक २४ (६, ४, ४, ४, ६) हेम० (५.२५), कवि० (२.२५), राज० (५.१८) ३. करभक रासक २४ (५, ५, ४, ४, जगण, 5) हेम० (५.७) ४. इन्द्रगोप रासक २४ (४, ५, ५, ४, ४, 5) हेम० (५.८) ५. ललिता प्रथम २४ (४, ४, ५, ४, ५, २) हेम० (४.३६) ६. ललिता द्वितीय २४ (४, ४, रगण, ४, रगण, 5) वृत्तजाति० (४.९३) ७. द्रुता २४ (४, ४, जगण, ४, जगण, ४) वृत्तजाति० (४.३६) ८. लक्ष्मी २४ (४, ५, ५, ५, 155) वृत्तजाति० (३.३०) ९. चन्द्रलेखा २४ (६, ४, ४, ४, २) हेम० (४.६०), कवि० (२.२४) १०. सालभंजिका २४ (३, ३, ४, ४, ४, ३, ३) हेम० (४.२४) इन सभी छंदों में 'वस्तुवदनक' विशेष प्रसिद्ध रहा है और यही पुरानी हिंदी के 'रोला' का पूर्वरूप है, फर्क यह है कि रोला में आकर इसका अंतिम गण नियत रूप में दो लघुओं से युक्त हो गया है, फलत: इसे दो टुकड़ों में बाँट कर रोला की उट्टवणिका में '४ +.' बना दिया गया है। इसके अलावा 'वस्तुवदनक' में यति-व्यवस्था '६+४+४/ /४+६' जान पड़ती है। कुमारपालप्रतिबोध की भूमिका में जर्मन विद्वान् अल्सदोर्फ ने बताया है कि 'वस्तुवदनक' में प्रधान यति तीसरे मात्रिक गण (१४ वी मात्रा) के बाद पड़ती है, किंतु बाद में चलकर गौण यति ११वीं मात्रा के बाद भी पड़ने लगी है। प्राकृतपैंगलम् में इसी परवर्ती काल में विकसित यति का उल्लेख है और मूल १४ वी मात्रा वाली यति यहाँ नहीं पाई जाती। हेमचन्द्र ने वस्तुवदनक के लक्षण में यतिव्यवस्था का कोई संकेत नहीं किया है। वे केवल इसकी गणव्यवस्था (६+४+४+४+६)का संकेत करते हुए यह बताते हैं कि यहाँ दूसरे और चौथे चतुर्मात्रिक गणों में 'जगण' निषिद्ध है तथा विषम (तीसरा) चतुर्मात्रिक गण 'जगण' (15) या 'सर्वलघु' (II) हो सकता है। हेमचन्द्र के द्वारा उपन्यस्त उदाहरण में यतिव्यवस्था १४, १० की ही है, किंतु ११ वी मात्रा के बाद भी गौण यति मिलती है। मायाविअहँ विरुद्ध-, वाय- । वसवंचिअलोअहँ, परतित्थिअहँ असार-, सत्थ- । संपाइअमोहहँ । को पत्तिज्जइ सम्म-, दिट्ठि- । जहवत्थुअवअणहँ' जिणहँ मग्गि निच्चलनि-, हित्त, मणु करुणाभवणहँ ॥ इन दोनों स्थानों पर यति-प्रयोग की व्यवस्था हेमचन्द्र के पहले ही शुरु हो गई होगी । बाद में 'संदेशरासक' में भी यति ११ वीं और १४ वीं दोनों मात्राओं पर मिलती है। वस्तुवदनक (या रोला) का प्राचीनतम प्रयोग बौद्धसिद्ध सरहपा की रचनाओं में मिलता है। वहाँ द्वितीय चतुष्कल गण की व्यवस्था '.-.' मिलती है और ११ वी मात्रा पर भी गौण यति का स्पष्ट प्रयोग मिलता है, जहाँ चौदहवीं की मात्रा के पूर्व '--' (गुरु-लघु) की मात्रिक व्यवस्था वाला स्वतंत्र पद प्रयुक्त हुआ है : जइ णग्गा विअ होइ मुत्ति, ता सुणह सिआलह, लोम उपाडण अत्थि सिद्धि, ता जुवइ-णिअंबह । पिच्छी गहणे दिट्ठ मोक्ख, ता मोरह चमरह, सञ्छ-भोअणे होइ जाण, ता करिह तुरंगह ॥ १. Alsdorf : Kumarpalapratibodha (Intro.) pp.74-75 २. एकः षण्मात्रश्चगणत्रयं षण्मात्रश्च वस्तुवदनकम् । अत्रापवादः समे जगणरहितश्चगण ओगे जो लीर्वा ॥ - छंदोनु० ५.२५ वृत्ति ३. Bhayani : Sandesarasaka. (study) Metres $9. p. 58 ४. हिंदी काव्यधारा पृ. ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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