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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६०७ मात्रिक चतुरक्षरी गणों के आवर्तन से बने छन्दों में स्थान दिया है । वे बताते हैं कि 'तूणक वृत्त के विशिष्ट स्थानों के गुरु के स्थान पर दो लघु देने से हीर वृत्त सिद्ध होता है ।१ मराठी से वे हीर छंद का निम्न उदाहरण देते हैं। 'शत्रुकदन केलिसदन वीर मदन हीर हा; व्यस्त कुटिल आणि कुठिल देवि नव तुझी रहा ! प्राप्त दयित त्यास खचित दीन करित टाळिशी, हा न विनय वा न सुनय, काम समय गाळिशी ॥ हीर का प्रयोग आधुनिक हिन्दी कविता में कम मिलता है। पंत की 'निद्रा के गीत' नामक कविता में इसकी ६, ६, ६, ५ वाली गणव्यवस्था मिलती है, किंतु वहाँ यति १२, ११ पर पाई जाती है । साथ ही वहाँ अंत में 'रगण' की व्यवस्था सार्वत्रिक नहीं है। जाग्रत उर में कंपन, नासा में हो वात, सोएँ सुख, दुख, इच्छा, आशाएँ अज्ञात ॥ विस्मृति के तंद्रालस, तमसांचल में रात, सोओ जग की संध्या, होए नवयुग प्रात ।। (पल्लविनी पृ० २२२-२२३) रोला १८२. रोला छन्द २४ मात्रा वाला सममात्रिक चतुष्पात् छन्द है। प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्रायें होती है तथा रोला के प्रथम भेद में ११ गुरु और दो लघु प्रत्येक चरण में होंगे । एक एक गुरु के स्थान पर दो दो लघु बढ़ाने से रोला के अन्य भेद होते हैं । इन सभी रोला भेदों के चरणों में ११ वी मात्रा लघु होती है और उसके बाद यति होती हैं, इसका कोई संकेत रोला के लक्षणपद्य में नहीं मिलता, लघु उदाहरणपद्य (१.९२) में ये दोनों लक्षण पूर्णतः घटित मिलते हैं। छप्पय छन्द के प्रकरण में रोला का संकेत करते समय प्राकृतपैंगलम् में ११, १३ पर प्रतिचरण यति का अवश्य उल्लेख मिलता है। दामोदर ने भी वाणीभूषण में ११, १३ पर ही यति मानी है और ग्यारहवीं मात्रा को लघ्वक्षर के द्वारा ही निबद्ध किया है : तरति पयोनिधिसलिल-, मयति गिरिशिखरशिखोपरि, विशति रसातलमटति, यशस्तव सकलदिशः परि । गगनगमनमभिनयति, समं शशिना श्रियमञ्चति, चित्रमिदं न तथापि, भवन्तं भूप विमुञ्चति ॥ किंतु जैसा कि हम आगे देखेंगे कि 'रोला' में ८, ८, ८ की यति भी पाई जाती है। प्राकृतपैंगलम् रोला छन्द के प्रकरण में इसकी गणव्यवस्था का कोई संकेत नहीं करता, किंतु छप्पय छंद के प्रकरण में रोला की गणव्यवस्था एक स्थान पर '२+४+४+४+४+४+ ' दी गई है,५ अन्य स्थान पर '६+४+४+४+४+~' संकेतित की गई है। ग्यारहवीं मात्रा को लघु मानने पर तीसरे चतुष्कल की रचना '...' या '.--' कोटि की हो सकती है। रोला छंद के नाम से इसका लक्षण पुराने ग्रन्थों में केवल प्राकृतपैंगलम् और छन्द:कोश में ही मिलता है। छन्दःकोश में रोला (=रोडक) का उल्लेख छप्पय, कुण्डलिया तथा कुंडलिनी छन्दों के प्रसंग में किया गया है। वे इसे 'रोडक' तथा 'काव्य' (कव्ब) इन दो नामों के पुकारते हैं। वहाँ यह भी संकेत मिलता है कि 'काव्य' छंद ही 'देशी भाषा' के सरस शब्दों में विरचित होने पर 'रोडक' कहलाता है। इससे यह संकेत मिलता है कि अपभ्रंश कवियों का वक्ष्यमाण 'वस्तुवदनक' या 'वस्तुक' ही पुरानी हिंदी के देशी कवियों के यहाँ 'रोडअ' (रोला) कहलाने लगा था। २४ मात्रा वाली सम चतुष्पदी अपभ्रंश में काफी पुरानी हैं। नंदिताढ्य के 'गाथालक्षण' में ही 'वत्थुओ' (वस्तुक) छंद का संकेत है, जिसकी गणव्यवस्था वहाँ '४+४+५+५+२+२+२' मानी गई है। इसके साथ १५, १३ यति वाले दो १. तूणक वृत्तांतील विशिष्ट ठिकाणच्या गुरु एवजी दोन लघु घालून हीर वृत्त सिद्ध होते । - छन्दोरचना पृ. ६० २. प्रा० पैं० १.९१ ३. एआरह तसु विरह त पुणु तेरह णिब्भंतइ । - प्रा० पैं० १.१०५ ४. एकादशमधि विरतिरखिलजनचित्ताहरणं । - वाणीभूषण १.५९ ५. प्रा० पैं० १.१०५ ६. छन्दःकोश पद्य १३, ३१, ३८ ७. सो पुण देसीभास सरस, बहु सद्दसमाउल, रोडक नामि पसिद्ध छंदु कवि पढहि रसाउल || - छंदःकोश १३ ८. दो वेया सिहिजुयलं जुयाई दुन्निउ दुगं च वत्थुयओ । - गाथा लक्षण ८२ ९. दे० - छप्पय छंद 8 २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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