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________________ ६०६ प्राकृतपैंगलम् भाल तिलक माल उरसि छाप भुजनि ठावहीँ, श्याम सकल वारिद तन नैन कमल ध्यावहीं। कानन सुनि पावन जस आनँद उभगावहीँ, प्रेम मगन संतन मिलि जीवन फल पावहीं ॥ (छंदसार पृ. १२) भिखारीदास ने तेईस मात्रा वाले छन्दों में 'हीरक' छन्द का जिक्र किया है और इसमें तीन टगण और एक एक रगण की प्रतिचरण व्यवस्था मानी है ।" हीरक छंद की उट्टवणिका 'छन्दार्णव' में आदि गुरु ३ षट्कल + रगण दी है :51111, 51111, 51111, SIS; किन्तु उदाहरण पद्य के चारों चरणों में यह व्यवस्था नहीं मिलती । जाहु न पर। देस ललन । लालच उर रत्ननि की । खानि सुतिय मंदिर में विद्रुम अरु हीरक अरु । लालनि सम । ओठनि अव । मोतिअ सम । दंतनि लखि इस छन्द का द्वितीय चरण उपरिविवेचित लक्षण तथा उट्टवणिका की पूरी पाबंदी नहीं करता जहाँ प्रथम (रत्ननि की SIS) और तृतीय षट्कल ( मंदिर में 5115) गण की व्यवस्था नियमानुकूल नहीं जान पड़ती। इससे एसा संकेत मिलता है कि मध्ययुगीन हिंदी कविता में 'हीर' या 'होरक' के दोनों तरह के रूप प्रचलित थे और कुछ कवि षट्कल की विशेष प्रकृति के विषय में विशेष सतर्क नहीं थे। हाँ, चरण के आदि में गुरु और अंत में रगण की व्यवस्था का पालन सभी को अभीष्ट था । प्राचीन छन्दः परम्परा में २३ मात्रा वाले निम्न छन्द मिलते हैं । (१) विगलितक २३ (५, ५, ४, ४, ५) हेम० (४.२० ) (२) खझक २३ (३, ३, ४, ४, ४, २. गुरु) हेम० (४.४२) कविदर्पण (२.२३) (३) श्यामा २३ (५, ५, ४, ४, रगण) वृत्तजातिसमुच्चय (३.२८) (४) महातोणक २३ (५, ४, ५, ४, ५) हेम० (४.४३) (५) पवनोद्धत २३ (६, १, २, १, ४, २ गुरु, यगण ) हेम० (४.६७) (६) रासक २३ (४ x ५, लघु, गुरु, १४, ११) हेम० (५.४), कवि० (२.२३). इनमें 'रासक' के अतिरिक्त बाकी सभी हेमचन्द्रनिर्दिष्ट छन्द गलितक प्रकरण के हैं। 'रासक' छन्द जो द्वितीय रासक है तथा २१ मात्रावाले 'रासक' से भिन्न है, हीर छन्द की ही भाँति चरणांत में लघु और गुरु से नियमित होता है। फर्क इतना जरूर है कि यहाँ गणव्यवस्था भिन्न है और यति भी १४ ९ पाई जाती है। इस द्वितीय रासक का संकेत कविदर्पणकार ने किया है और वे इसका उदाहरण यों देते हैं । Jain Education International प्रणतजणकप्परुक्खसरिसं पयतामरसं जाण नमंति सुरा सययं कयमणुकरिसं । केवलणाणपईवपयासियसयलविसया, ते जिणणाहा तुम्हं कुणंतु भद्दं सया ॥ १. तीनि टगन यक रगन दै, हीरक जानो मित्त । २. चतुर्मात्रपञ्चकं लघुगुरू च यदि वा रासकः । - ३. कविदर्पण २.४० । मंडिकै, । छडिकै । " (प्रणत जनों के लिये कल्पवृक्ष के सदृश, मन का उत्कर्ष करने वाले, जिनके पदतामरसों (चरणकमलों) को देवता सदा नमस्कार करते हैं, वे कैवल्य ज्ञानरूपी प्रदीप से सकल विषयों को प्रकाशित करने वाले जिननाथ तुम्हारा सदा कल्याण करें 1) रेखिये, लेखिये | (छंदार्णव ५. २०० ) यद्यपि उक्त रासक का गति, लय और गूँज में हीरक (हीर) से भेद है, फिर भी इतना संकेत मिलता है कि हीर उसी गेय छन्द का प्ररोह है, जिसका एक भेद द्वितीय रासक है। प्राकृतपैगलम् के पूर्व कहीं भी इस विशिष्ट कोटि का हीरछन्द नहीं मिलता । इस छन्द की विशिष्ट प्रकृति भट्ट कवियों की ही देन है और वहीं से यह मध्ययुगीन हिंदी, गुजराती और मराठी काव्यपरम्परा में आई है। मराठी के छन्दों का विश्लेषण करते समय श्री माधवराव पटवर्धन ने इसे --- छंदार्णव ५.१९८ छन्दोनुशासन ५.४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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