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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
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हीर
६ १८१. हीर छन्द २३ मात्रा की सममात्रिक चतुष्पदी है । प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इसमें पहले तीन षट्कल गण और फिर 'रगण' (515) (पंचकल) की स्थापना की जाती है। प्रत्येक षट्कल भी गुर्वादि होते हैं, जिसमें शेष चार मात्रा लघु (511) होती हैं । इस प्रकार हीर के हर चरण में ५ गुरु और १३ लघु अक्षर होते हैं । इस छन्द की उक्त गणव्यवस्था एवं लगात्मक पद्धति का संकेत 'दलपतपिंगल' में पूरी तरह नहीं मिलता । वहाँ केवल आदि में गुरु और अंत में रगण का ही विधान है, तभी तो ॥ वाले षट्कल गणों की व्यवस्था उदाहरण में नहीं पाई जाती ।
विश्वपाळ । धीविशाळ । छो दयाल । देव रे, शोकहारि । सौथी सारि / छे तमारि । टेव रे । ज्ञान-अर्क । सद्य हरक । दुःख नरक / खाणिनां
आप चरण / तापहरण / पापहरण । प्राणिनां ॥ (दलपतपिंगल २-१००) इस छन्द की यति का कोई संकेत प्राकृतपैंगलम् में नहीं मिलता । कवि दलपतभाई इसमें ६, ६, ६, ५ पर यति मानते हैं और इसे त्रिमात्रिक ताल में गाया जानेवाला छन्द कहते हैं। पहली मात्रा के बाद हर तीन तीन मात्रा के टुकड़े के बाद ताल देकर यह छन्द गाया जाता है ।
मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में यह छन्द केशवदास के दोनों ग्रन्थों में उपलब्ध है। 'छन्दमाला' का लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है, दलपतपिंगल वाली पद्धति का नहीं । केशवदास इस छन्द में स्पष्टतः षट्कल गण की व्यवस्था । ही मानते हैं और 'छन्दमाला' वाला उदाहरण भी इसकी पूरी पाबंदी करता है। केशवकृत लक्षण यह है :
एक गुरुही तर चारि लघु तीनि ठौर मति धीर ।
अंत रगन तेईस कल होइ एक पद हीर || (छन्दमाला २.४७) केशव की 'रामचन्द्रिका' में भी इस छंद की गणव्यवस्था दुरुस्त है, दलपतपिंगल वाली गड़बड़ी नहीं पाई जाती।
पंडितगन मंडितगुन दंडित मति देखिये, क्षत्रियवर धर्मप्रवर क्रुद्ध समर लेखिये। वैस्य सहित सत्य रहित पाप प्रगट मानियै, सूद्र सकति विप्र भगति जीव जगति जानियै ।।
(रामचंद्रिका १.४३) श्रीधर कवि के 'छंदविनोद' का लक्षणोदाहरण पद्य केवल तेईस मात्रा और अंत में रगण का ही संकेत करता है। वह आरंभ में गुरु और गुर्वादि षट्कल गणों की व्यवस्था नहीं देता और न इसकी पूरी पाबंदी अपने निदर्शन में ही करता है । नारायणदास वैष्णव ने 'छन्दसार' में इसका लक्षण पूरी तरह अष्टादशाक्षर रूप में दिया है, जहाँ गुरु और लघु अक्षरों के स्थान का संकेत स्पष्ट मिलता है। उनके मतानुसार इसमें क्रमशः भगण (15), सगण (॥), नगण (1), जगण (151), मगण (555), रगण (515) की स्थिति पाई जाती है। किंतु यह लक्षण या तो दुष्ट है या बनारस लाइट छापेखाने के संस्करण में गलत छपा है। यहाँ मगण (555) के स्थान पर 'नगण' होना चाहिए । मेरी समझ में यह संपादक की भूल से या हस्तलेख के लिपिकार की भूल से 'मगण' हो गया है, क्योंकि नारायणदास उदाहरण में स्पष्टतः पाँचवें वर्णिक गण को नियत रूप से नगणात्मक ही निबद्ध करते हैं :
१. णाअ पभण तिण्णि छगण अंत करहि जोहलं, हार ठविअ पुणु वि सुपिअ विप्पगणहि सब्बलं ।
तिण्णि धरहि बे वि करहि अंत रगण लक्खए, कोइ जणइ दप्प भणइ हीर सुकइ पक्खए ॥ - प्रा० पैं० १.१९९ २. विश कळ, लावि सकळ, मित्र प्रबळ प्रेमथी, आदि उपर, त्रण त्रण पर, ताळ तुं धर नेमथी।
शास्त्र अंत शास्त्रअंत, विरतिवंत होय ते आदि दीर्घ, अंत रगण, हीर छन्द होय ते ॥ - दलपतपिंगल २.९९ ३. तेइसकल राखि अमल अंतरगन राजई, छह विराम छह विराम छह सु पाँच साजई ।
या विधिकरि छंद सुधर हीर राम (? नाम) सोहना, श्रीधर कवि विरचित सुछवि जगत मन सुमोहना || - छंद विनोद २.३६ ४. भगन सगन नगना जगन मगन (? नगन) रगन पुनि जानि ।
एक चरन यौँ चारि हूँ हीरा छंद पहिचानि || - छंदसार पद्य ३५.
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