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________________ ६०४ प्राकृतपैंगलम् 'सुररमणीअणकयबहुविहरासयथुणिय, जोइविंदविंदारयसयणमुणिअचरिअ । सिरिसिद्धत्थनरेसरकुलचूलारयण, जयहि जिणेसर वीर सयलभुवणाभरण ।' (सुररमणीजन के द्वारा बहुविध रासक छन्दों के द्वारा स्तुत, योगीवृंद-वृन्दारक (देव) शत के द्वारा ज्ञात चरित, श्रीसिद्धार्थनरेश्वर के कुलचूड़ारत्न सकलभुवनाभरण वीर जिनेश्वर (तुम्हारी) जय हो ।) हेमचन्द्र के 'दर्दुर' और 'आमोद' दोनों छंद 'रासक' के ही अवांतर प्ररोह हैं, जिनमें फर्क सिर्फ गणव्यवस्था का है। इन दोनों भेदों में अंत में गुरु (5) होना परमावश्यक माना गया है, जो मूल 'रासक' छंद में निषिद्ध है, क्योंकि वहाँ अंत में 'नगण' होता है। 'रासावलय' रासक का वह भेद है जहाँ गणव्यवस्था 'छ, च (जगणेतर), छ, प' है। इस छंद में दूसरे स्थान पर जगण का प्रयोग निषिद्ध है। ये सभी रासक के ही भेद हैं । प्राकृतपैंगलम् के ही समसामयिक ग्रंथ 'छन्दःकोश' में प्लवंगम का उल्लेख न होकर 'आभाणक' (४ x ५, १) का विवरण मिलता है । उक्त सभी छंद मूल 'रासक' के ही प्ररोह हैं।। ___'रासक' छंद अपभ्रंश का काफी प्रसिद्ध छंद है, जो 'रासनृत्य' के साथ गाया जाता रहा है। इस छन्द को कुछ स्थानों पर 'चर्चरी' भी कहा गया है। जिनदत्तसूरि ने इसी छन्द में 'चाचरि' (चच्चरी / चर्चरी) की रचना की है, किंतु वहाँ हेमचन्द्र के अनुसार प्रायः नगणांत व्यवस्था पाई जाती है तथा यति कहीं कहीं प्राकृतपैंगलम् के 'प्लवंगम' की तरह १२, ९ मिलती है । जिनदत्तसूरि की 'चाचरि' का एक नमूना यह है : जिण कय नाणा चित्तहँ, चित्त हरंति लहु, जसु दंसणु विणु पुन्निहिँ कउ लब्भइ दुलहु । सारइँ बहु थुइ-थुत्तइ, चित्तइँ जेण कय तसु पयकमलु जि पणमहि, ते जण कय-सुकय ॥२ स्पष्ट है, 'रासक' के अनेक भेद गेय रूप में प्रचलित रहे हैं, इसका गुर्वादि एवं गुर्वत भेद ही भट्ट कवियों में 'प्लवंगम' कहलाने लगा था । आरंभ में इसमें १२, ९ की यतिव्यवस्था थी, बाद में रोला के प्रभाव से ११, १० की यतिव्यवस्था हो गई। हिंदी के कुछ कवियों और छन्दोग्रंथों में इसके अंत में 'रंगण' (515) की व्यवस्था मानी जाने लगी। गुजराती काव्यपरंपरा में प्लवंगम छन्द का प्रचुर प्रयोग मिलता है। श्री नरसिंहराव ने इस छंद की तुलना गुजराती के गरबी गान से की है और बताया है कि इन दोनों में भेद यह है कि प्लवंगम में ११ वी मात्रा पर यति पाई जाती है, जब कि गरबी का पठन सतत अविरत है। कुछ गुजराती संगीतज्ञ प्लवंगम का संबंध दोहा से भी जोड़ते हैं । श्री बर्वे ने 'गायनवादन पाठमाला पु० १' में कहा है :- 'दुहानुं बीजुं चरण ते प्लवंगमनो प्रथम यतिवालो खंड छे. अने दुहाना पहेला चरणमांनी आरंभनी त्रण मात्रा ओछी करी, जोर अने संधिनी व्यवस्था मूल प्रमाणे राखवाथी प्लवंगमनो बीजो यतिवालो खंड बने छे.'५ किंतु यह मत मान्य नहीं हो सका है और प्लवंगम को दोहे से संबद्ध मानने का कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है। इस संबंध में 'रासक' से 'प्लवंगम' का विकास मानने की हमारी कल्पना सत्य के अधिक नजदीक जान पड़ती है। आधुनिक हिंदी कवियों ने प्लवंगम छंद का अतुकांत प्रयोग भी किया है । प्रसादजी ने 'भरत', 'महाराणा का महत्त्व' और 'करुणालय' में इसी छंद का अतुकांत प्रयोग किया है । डा० पुत्तूलाल शुक्ल ने प्रसादजी के 'भरत' काव्य से अतुकांत प्लवंगम की निम्न पंक्तियाँ उद्धत की हैं । अहा खेलता कौन यहाँ शिशु सिंह से, आर्य वृन्द के सुंदर सुख में भाग्य सा, कहता है उसको लेकर निज गोद में खोल खोल मुख सिंह बाल मैं देखकर गिन लूँ तेरे दाँतों को कैसे भले । डा० शुक्ल ने प्रसादजी के उक्त छंद में दो अष्टक और एक पंचमात्रिक की व्यवस्था (८, ८, ५) मानी है । १. मत्त हुवइ चउरासी चउपइ चारिकल, तेसठिजोणि निबंधी जाणहु चहुयदल । पंचकलु वज्जिज्जहु सुट्ठवि गणहु, सोवि अहाणउ छंदु जि महियलि बुह मुणहु ।। - छन्दःकोश १७ २. हिंदी काव्यधारा पृ. ३५० से उद्धृत. 3. Thus in die the afat is after the eleventh matra while the garabi is a non-stop line altogether." __ -Gujarati Language and Literature Vol. II. p. 286-7 ४. बृहत् पिंगल पृ. ४४२ पर उद्धृत ५. आधुनिक हिंदी काव्य में छन्दयोजना पृ. ४०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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