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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६०३ विधान होता है। भानुजी ने 'यति' का विधान आठवीं मात्रा पर न होकर ग्यारहवीं पर होने पर उसे भिन्न छन्द कहा हैचंद्रायण । इसका विवेचन करते वे कहते हैं : "चंद्रायण के आदि में लघु व गुरु समकलात्मक रूप में आते हैं, जैसे 55, IIS, 50, 1; यदि कोई पद त्रिकल से आरंभ हो, तो एक त्रिकल और रखना पड़ता है, परंतु ११ मात्राएँ जगणान्त और १० मात्राएँ रगणान्त होती हैं। चन्द्र के दो पक्ष जैसे शुक्ल और कृष्ण प्रसिद्ध हैं, वैसे ही इसके पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में पादांत की रीति भी भिन्न-भिन्न है।"? वस्तुत: 'चन्द्रायण' और 'प्लवंगम' एक ही छन्द के दो प्ररोह है और पुराना 'प्लवंगम' ही आज का 'चंद्रायण' है। भानुजी ने इन दोनों छंदों के मिश्रित छंद 'त्रिलोकी' का भी जिक्र किया है, जिसमें यति १६, ५ पर पाई जाती है। ये तीनों छंद 'प्लवंगम' की ही विविध गति से संबंध रखते हैं । भिखारीदास ने 'छंदार्णव' में 'प्लवंगम' का ही संकेत किया है, इसके अन्य दो प्ररोहों का नहीं । वे इसमें 'च च च च प' की मात्रिक गणव्यवस्था मानते हैं। उन्होंने इसके यति-विधान का कोई संकेत नहीं किया है। उनका उदाहरण निम्न है : एक कोउ मलयागिरि खोदि बहावतो, तौ कत दक्षिणपौन तियानि सतावतो । व्याकुल विरहिनि बाल झखै भरि नैन कों, निंदति बारहि बार पवंगम सैन कों ॥ (छंदार्णव ५.१८४) प्राचीन छंदोग्रंथों में 'प्लवंगम' का उल्लेख केवल प्राकृतपैंगलम् में ही मिलता है, स्वयंभू, हेमचंद्र, राजशेखर, रत्नशेखर कोई भी इसका संकेत नहीं करते । पर पुराने लेखकों ने २१ मात्रा वाले ऐसे अनेक छंदों का जिक्र अवश्य किया है, जिनको गण-भेद के कारण विविध नाम दिये गये हैं। हम यहाँ उनकी तालिका देकर 'प्लवंगम' के विकास पर कुछ विचार करेंगे। (१) गलितक २१ (५, ५, ४, ४, ३) हेमचन्द्र (४.१७), कविदर्पण (२.२३). (२) उपगलितक २१ (५, ५, ४, ४, ३; तृतीय तथा षष्ठ मात्रा लघु) हेम० (४.१८) (३) अंतरगलितक २१ (५, ५, ४, ४, ३; प्रथम-चतुर्थ या द्वितीयचतुर्थ तुक) हेम० (४.१९). (४) मंजरी २१ (३, ३, ४ x ३, ३) हेम० (४.५२) (५) तरंगक २१ (६, १, २, १, ४, २, गुरु, ३) हेम० (४.६६) (६) रासक २१ (१८, न; यति १४, ७) हेम० (५.३), स्वयंभू (८.५०) (७) दर्दुर (रासक) २१ (४, ५, ५, ४, लघु, गुरु) हेम० (५.१०) (८) आमोद (रासक) २१ (४, २, ज, म, गुरु) हेम० (५.११) (९) रासावलय २१ (६, ४, (जगणेतर), ६, ५) हेम० (५.२५), कवि० (२.२५) (१०) आभाणाक २१ (४ x ५, १) छन्द:कोश (१७) इस तालिका में 'गलितक' और उसी के अवांतर भेद 'उपगलितक' और 'अंतरगलितक' प्राकृत ग्रंथों में भी प्रयुक्त मिलते हैं। 'गलितक' छन्द प्रवरसेन के 'सेतुबंध' तक में है, इसका संकेत हम कर चुके हैं। मंजरी और 'तरंगक' भी प्राकृत के ही गेय छन्द जान पड़ते हैं । इन छन्दों का उल्लेख हेमचन्द्र प्राकृतछन्दों के ही प्रकरण में छन्दोनुशासन के चतुर्थ अध्याय में करते हैं। अपभ्रंश छन्दःप्रकरण में वर्णित २१ मात्रा वाले छन्दों में 'रासक' प्रमुख है, जिसका मूल लक्षण यह है कि इसमें १८ मात्रा तदनंतर 'नगण' (III) की व्यवस्था पाई जाती है। इसका उदाहरण हेमचन्द्र ने यह दिया है। १. भानु : छंद प्रभाकर पृ. ५८. २. प्लवंगम और चंद्रायण के मेल से, अंत में 15, त्रिलोकी नामक छंद माना गया है, यथा 'सोरह पर कल पाँच त्रिकोली जानिए' । - वही पृ. ५८ ३. चारि चकल इक पंचकल, जानि प्लवंगम वंस । - छंदार्णव ५.१८३ ४. दे०-प्रस्तुत ग्रंथ १३७ ५. दामात्रा नो रासको ढैः । दा इत्यष्टादशमात्रा नगणश्च रासकः । द्वैरिति चतुर्दशभिर्मात्राभिर्यतिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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