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प्राकृतपेंगलम् छंद में पंचमात्रिक और चतुर्मात्रिक गणों की रचना नहीं की जानी चाहिए। प्राकृतपैंगलम् में इस छंद की यति का कोई संकेत नहीं मिलता, किंतु गुजराती ग्रंथ 'दलपतपिंगल' के मतानुसार यहाँ ११, १० पर यति पाई जाती है। यह छंद चतुर्मात्रिक ताल में गाया जाता है, जिस पर हम आगे विचार करेंगे । प्राकृतपैंगलम् में यति का कोई विधान संकेतित न होने पर भी, वहाँ उदाहरण भाग में यति पाई जाती है, किंतु यह ११, १० की न होकर १२, ९ की है। ऐसा जान पड़ता है, पुराने कवि यति का विधान प्रथम दो षट्कलों के बाद करते थे। बाद में प्लवंगम को रोला की गति में गाया जाने लगा था, फलत: इसमें भी यति का विधान ग्यारहवीं मात्रा के बाद किया जाने लगा। प्राकृतपैंगलम् के उदाहरण में यति बारहवीं मात्रा के बाद ही जान पड़ती है।
णच्चइ चं ।चल विज्जुलि || आ सहि जा । णए मम्मह ख- । ग्ग किणीसइ । जलहरसा- । णए फुल्ल कलं- । बअ अंबर ॥ डंबर दी- ।सए
पाउस पा- । उ घणाघण ॥ सुमुखि वरी- / सए ॥ (प्रा० पैं० १.१८८) दामोदर के 'वाणीभूषण' में प्लवंगम छंद में केवल तीन षट्कल गणों वाली व्यवस्था नहीं मानी गयी है, वे इसमें पंचकल और चतुष्कल का भी विधान करते हैं, केवल चरण के शुरू में आदिगुरु षट्कल की पाबंदी मानते हैं । अंत में रगण (ऽ । ऽ) होना उन्हें अभीष्ट है। इससे यह जान पड़ता है कि वाणीभूषण के समय तक इस छंद में 'छ छ छ त' वाली गणव्यवस्था लुप्त हो गई है। किंतु आरंभ में षट्कल की व्यवस्था और प्रत्येक चरण के आरंभ में गुरु होना जरूरी माना जाता रहा है। मध्ययुगीन हिंदी में आकर यह गणव्यवस्था और सहल हो गई है, केवल आद्यंत में गुरु का होना ही जरूरी माना जाने लगा है । प्राकृतगलम् और वाणीभूषण दोनों इसमें यति का संकेत नहीं करते, किंतु हिन्दी और गुजराती दोनों काव्यपरंपराओं में इसकी यति ग्यारहवीं मात्रा पर मानी जाती है, इसका संकेत श्रीधर कवि के 'छंदविनोदपिंगल' में मिलता है। श्रीधर कवि ने प्लवंगम के अंत में दामोदर की तरह ही 'रगण' (515) माना है। गुजराती छन्दः परम्परा में प्लवंगम में 'चार चतुष्कल गण + पंचकल' की गणव्यवस्था का संकेत मिलता है। इस संबंध में श्री रामनारायण पाठक इस छन्द की गति का संकेत यों करते हैं।
"प्लवंगम : दादा दादा दाल'ल दादा दादा दालगा.
अहीं स्पष्ट थशे के रोलानी पेठे ज आमां ११मी मात्राए यति छे. आ छन्दनां पहेलां चार चतुष्कलो बराबर रोलाना जेवां छे. पछी फेर पड़े छे."५
आधुनिक हिंदी कवियों में प्लवंगम छन्द में आठवीं मात्रा पर यति और अंत में 1515 या ऽऽ।ऽ पाया जाता है। जगन्नाथप्रसाद 'भानु' ने 'छन्द:प्रभाकर' में इसके अंत में ।ऽ।ऽ नियमतः माना है । स्पष्ट है, यह प्लवंगम भेद मध्ययुगीन हिंदी 'प्लवंगम' और गुजराती 'प्लवंगम' से लय की दृष्टि से भिन्न है, जहाँ ११ वी मात्रा लघु कर उसके बाद यति का १. जत्थ पढम छअ मत्त पअप्पअ दिज्जए, पंचमत्त चउमत्त गणा णहि किज्जए ।
संभलि अंत लहू गुरु एक्कक चाहए, मुद्धि पअंगम छंद विअक्खण सोहए ॥ - प्रा० .० १.१८३, साथ ही १.१८७-८७ २. मात्रा प्रतिपद एक, अने विस मानिये । एकादश दश ऊपर, जरूर जति जाणिये ॥
एक ऊपर पछि चतुर, चतुर पर ताल छे । आदी गुरु गुरु अंत, प्लवंगम चाल छे ।। - दलपतपिंगल २.९० ३. षट्कलमादिगुरुं प्रथमं कुरु संततं, पञ्चकलं च ततोऽपि चतुष्कलसंगतम् ।
नायकमत्र चतुर्थमितो गुरुमन्तके, एकाधिकविंशतिः प्लवंगमवृत्तके ॥ - वाणीभूषण १.१११ ४. आदि गुरू करि मत्त इकीस सुधारिये, अंत पदप्पद सुद्ध रगन्नहि धारिये । ___ग्यारह पै विसराम भली विधि दीजिये, चारु पवंगम छंदहिँ या बिधि कीजिये ॥ - छन्दविनोद २.३३ ५. बृहत् पिंगल पृ. ३११ ६. इस छन्द का प्रयोग आधुनिकयुग में गुरुभक्तसिंह के 'नूरजहाँ' (तृतीयसर्ग) और हरिऔधजी के 'वैदिक-वनवास' (नवम सर्ग)
में मिलता है।
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