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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
५९९ किं कीनाश पाशधर गर्जसि । मामुपगम्य दास (?) भरमर्जसि ॥ हरिचरणं शरणं न हि पश्यसि । यन्नामश्रवणादपि नश्यसि ।।
(वाणीभूषण १.७४) हम बता चुके हैं कि प्राकृतपैंगलम् के लक्षणानुसार अडिल्ला के पादांत में 'भगण' या 'सर्वलघु चतुष्कल' में से कोई भी गण हो सकता था । केशवदास तक आते आते 'अरिल्ल' का अन्तिम चतुष्कल गण नियमत: 'भगण' बन बैठा ।' केशवदास ने 'रामचन्द्रिका' में भगणांत अरिल्ल की ही रचना की है।
देखि बाग अनुराग उपज्जिय । बोलत कल ध्वनि कोकिल सज्जिय ।।
राजति रति की सखी सुवेषनि । मनहुँ बहति मनमथ-संदेसनि ॥२ श्रीधर कवि के 'छंदविनोद' में इसके जगण-निषेध और पादांत में दो लघु की व्यवस्था का ही संकेत है ।। किंतु भिखारीदास में पुनः इस बात का उल्लेख मिलता है कि अडिला (अलिला) के चारों चरणों में एक ही 'यमक' का पाया जाना जरूरी है। भिखारीदास के उदाहरण से यह स्पष्ट है। उनका अडिल्ला का उदाहरण भगणांत है और 'यमक' का प्रयोग वे 'अलंकार' वाले अर्थ में नहीं करते हुए भी चारों पदों में एक से ही स्वर-व्यञ्जन-समूह (०चावति) की व्यवस्था करते हैं, यद्यपि वह सर्वत्र किसी पद का पदांश होने के कारण निरर्थक है, सार्थक नहीं ।
भ्रूव मठकावति नैन नचावति । सिंजित सिसिकिन सोर मचावति ।
सुरत समै बहुरंग रचावति । अति लालन हित मोद सचावति ॥' पद्माकर के पौत्र गदाधर भी अरिल्ल की तुकांतता चारों चरणों में ही मानते हैं, जब कि चौपाई का इससे यह भेद मानते जान पड़ते हैं कि चौपाई की तुकांतता दो दो चरणों में ही पाई जाती हैं। उनके लक्षणपद्यों से तो यह भेद स्पष्ट नहीं होता, क्योंकि अरिल्ल और चौपाई दोनों का लक्षण समान है; किन्तु उदाहरणपद्यों से यह भेद स्पष्ट है। गदाधर का उदाहरण फिर एक रूपांतर का संकेत करता है। हम देख चुके हैं कि पुरानी हिंदी काव्यपरंपरा और मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में 'अडिल्ला' के पादांत में 'दो लघु' (II) होना जरूरी है। इसीलिये केशवदास और भिखारीदास के उदाहरण 'भगणांत' है, किंतु गदाधर इसके पादांत में 'दो गुरु' की व्यवस्था मानते जान पड़ते हैं। उनका उदाहरण 'यगणांत' (155) चरणों में निबद्ध है।
ले हरि नाम मुकुंद मुरारी । नारायन भगवन्त खरारी ।।
राधावल्लभ कुञ्जबिहारी । जानकिनाथ सदा सुखकारी ॥ बाद में अरिल्ल की यगणांत व्यवस्था का भी संकेत मिलता है। भानुजी ने इसके दोनों भेद माने हैं, अंत में दो लघुवाला अरिल्ल और अंत में यगण वाला अरिल्ल । डा० पुत्तूलाल शुक्ल आधुनिक हिंदी कविता के संबंध में यगणांत षोडशमात्रिक छंद को ही अरिल्ल कहते हैं ।
यदि अरिल्ल के लक्षण में चारों चरणों में एक ही तुक होने को प्रधान लक्षण न माना जाय - प्राकृतपैंगलम् और केशवदास का यही मत है - तो ऐसे भगणांत अरिल्ल-खंड गोस्वामी तुलसीदास की चौपाइयों में अनेक देखे जा सकते हैं।
१. अंत भगन मनि पाय पुनि बारह मत्त बखान ।
चौसठ मत्ता पाय चहुँ यों अरिल्ल मन मान ।। - छंदमाला २.३४ २. रामचंद्रिका १.३० ३. छंदविनोद २.१४ ४. छंदार्णव ५.३२ ५. वही ५.३४ ६. दे० - छन्दोमंजरी पृ. ८०-८१ ।। ७. आधुनिक हिंदी काव्य में छंद-योजना पृ. २६२ ८. प्राकृतपैंगलम् के उदाहरणपद्य में तुक दो दो ही चरणों में मिलती है :
जिणि आसावरि देसा दिण्हउ । सुत्थिर डाहररज्जा लिण्हउ ॥
कालंजर जिणि कित्ती थप्पिअ । धणु आविज्जिअ धम्मक अप्पिअ ॥ (प्रा० ५० १.१२८) Jain Education International
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