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________________ ५९८ प्राकृतपैंगलम् वाले भिन्नयमति वदनक को महिला कहते हैं, चारों चरणों में एक यमकव्यवस्था होने पर अडिला वृत्तजातिसमुच्चय के लेखक स्वयंभू के पक्ष में हैं, किंतु कविदर्पण के रचयिता हेमचन्द्र के द्वारा संकेतित मत को मानते जान पड़ते हैं । २ छन्दः कोश के लेखक ने अर्जुन नामक अपभ्रंश छन्दः शास्त्री के मत का भी उल्लेख किया है, जो स्वयंभू के ही मत को मानते हैं।" अडिला और महिला का यह भेद केवल अपभ्रंश की शास्त्रीय छन्द: परंपरा में ही रहा है। भट्ट कवियों के यहाँ 'वदनक' तथा 'उपवदनक' छन्द नहीं मिलते, फलतः यहाँ 'अडिला' साधारण घोडशमात्रिक छन्द बन कया है, और उसके साथ की यमक व्यवस्था भी केवल तुकव्यवस्था में बदल गई है। धीरे धीरे तुकव्यवस्था भी चारों चरणों में एक ही न होकर दो-दो चरणों में 'कख' 'गघ' के अनुसार पाई जाने लगी । संदेशरासक में 'अडिल्ला' की तुक 'कख' 'गघ' क्रम में ही मिलती है । संदेशरासक के 'अडिल्ला' छन्दों में 'यमकालंकार' का प्रयोग सभी जगह नहीं मिलता, केवल पद्य सं० १०४, १५७, १६३, १८२ में ही 'यमक' का प्रयोग मिलता है, बाकी 'अडिला' छन्दों में 'अनुप्रास' ही निबद्ध है। यह 'यमक' भी उक्त सभी छन्दों में सर्वत्र नहीं मिलता। कुछ छन्दों में तो यह केवल एक अर्धाली में ही मिलता है। दोनों अर्धालियों में निबद्ध 'यमक' वाले अडल्ला का एक निदर्शन यह है : 'इम विलवंती (? विलवंति) कहव दिण पाइउ । गेड गिरंत पढ़तह पाइउ ॥ पिअ अणुराइ स्यणिअ (? स्यणि) रमणीयव । गिज्जइ पहिय मुणिय अमरणीयव (? रमणीयव) | (हे पथिक, इस तरह रोते कलपते हुए प्राकृत गीतों को पढते हुए मैंने किसी तरह (वर्षा के दिन गुजारे । जो (शरद की) रात (प्रियसमागम के समय) प्रिय के प्रेम के कारण रमणीय प्रतीत होती है, वह मुझे आरे के किनारे (करपत्रपत्र ) की तरह मालूम पड़ी 1) उक्त छन्द षोडशमात्रिक प्रस्तार का छन्द है, किन्तु सिंघी जैन ग्रंथमाला के संस्करण में इसके तीन चरणों को सप्तदशमात्रिक माना है, मैंने षोडशमात्रिक ढंग पर ही इसका कोष्ठकगत संकेत किया है । के डा० भायाणी ने अडिला के ऐतिहासिक विकास का संकेत करते हुए बताया है कि वृत्तजातिसमुच्चय (४.३२) अनुसार 'आभीरी' (अपभ्रंश) भाषा में विरचित कोई भी छन्द पादांत में यमकित होने पर 'अडिल्ला' कहलाता था । इस प्रकार आरंभ में 'अडिला' एक सामान्य संज्ञा थी। धीरे धीरे इसका संबंध केवल वदनक और उपवदनक छन्दों से ही जुड़ गया और इन्हीं छन्दों में ऐसी विशिष्ट रचना की जाने लगी। जब 'यमक' और 'अनुप्रास' का भेद अपभ्रंश कवियों के यहाँ समाप्त हो गया, तो यमक के बिना भी १६ मात्रा के तुकांत समचतुष्पदी छन्द को अडिल्ला कहा जाने लगा और तुकांत व्यवस्था दो दो चरणों की भी हो गई। तो प्राकृतपैंगलम् में अडिल का यही परवर्ती रूप उपलब्ध होता है। दामोदर के वाणीभूषण के लक्षण में कोई खास बात नहीं मिलती और उनका उदाहरण स्पष्ट ही तुकांत मात्र है, हेमचन्द्र अनुसार यमकांत नहीं । १. वृत्तजातिसमुच्चय ४.३३-३४ २. कविदर्पण २.२१ ३. चउ पइ इक्कु जमक्कु वि दीसइ । अडिल छंद तं बुह य सलीसइ । जमकु होइ जहिं विपयजुत्तठ । मडिल छंदु तं अज्जुणि खुत्तड ॥ छंदः कोश पद्म ४१ Jain Education International - 8. These facts make it probable that formerly fe was a technical device rather than the name of any specific metre and accordingly any common metre could be turned into fs, by composing it in अपभ्रंश and using the यमक. And later on the distinction between the यमक and the अनुप्रास being lost. a 16-moraic metre of the above type even without the 4 came to be called fs. Finally it also took up the rhyme ab. cd. - Sandesarasaka : Study II, Metres $ 3 p. 51. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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