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________________ ६०० प्राकृतपैंगलम् रामसीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥ नदी पुनीत सुमानस नंदिनि । कलि-मल-तृन-तरु-मूल-निकंदिनि ॥ भये बिलोचन चारु अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दृगंचल ॥ तुलसी के मानस में 'जगणांत' पद्धरियाँ तो हैं ही नहीं, सर्वलघु चतुष्कलांत अरिल्ल-भेद भी ढूँढ़ने पर एक आध ही मिल पाते हैं । इस प्रसिद्ध चौपाई की सिर्फ पहली अर्धाली में यह व्यवस्था मिलती है। कंकन किंकिनि नुपूर धुनि सुनि । कहत लखन सन राम हृदय गुनि । मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्हीं । मनसा बिस्वबिजय कहँ कीन्हीं । सिंहावलोकित १७९. सिंहावलोकित छंद षोडशमात्रिक प्रस्तार का छन्द है, और इस दृष्टि से यह पज्झटिका और अडिलामडिला से मिलता जुलता है। पर इसकी रचना में मात्रिक गणों की व्यवस्था विशेष प्रकार की होती है। यद्यपि यहाँ भी चार चतुर्मात्रिक गणों की व्यवस्था होती है, किंतु ये गण या तो 'सर्वलघु चतुष्कल' या 'सगण' (ISI) ही हो सकते हैं । प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इसके प्रत्येक चरण में चार 'विप्रगण' (III) या 'सगण' (15) का विधानकर १६ मात्रा निबद्ध की जाती है, और 'जगण' (ISI), 'भगण' (|) तथा 'कर्ण' (55) का वारण किया जाता है। स्पष्टतः इस छंद की व्यवस्था '४+४+४+सगण' जान पड़ती है, जिसमें प्रथम तीन गण चतुष्कल सगण भी हो सकते हैं, सर्वलघु चतुष्कल भी। दामोदर के 'वाणीभूषण' में जगणादि के निषेध का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन लक्षणोदाहरण पद्यों में उनको बचाने की सतर्कता दिखाई पड़ती है। दिवसाद्यवसादिततिमिरवनं वनजावलिबोधनिसर्गधनम् । धनदेन्द्रकृतान्तपाशिनमितं मितभुवनतलं नम दिवसकृतम् ॥ (वाणीभूषण १.११०) यह छन्द चतुर्मात्रिक ताल में गाया जाता है। स्वयंभू, राजशेखर, हेमचन्द्र आदि पुराने अपभ्रंश छन्दःशास्त्री इस भेद का स्पष्ट संकेत नहीं करते, किंतु उनके षोडशमात्रिक 'पद्धडिका'३ में इसका अन्तर्भाव हो ही जाता है। वस्तुतः 'सिंहावलोकित' पद्धडिका का ही परवर्ती विशिष्ट प्ररोह है । यह विशेष प्रकार केवल आदिकालीन हिंदी के भट्ट कवियों में ही प्रचलित रहा होगा और इसकी स्थिति प्राकृतपैंगलम् के बाद केवल मध्ययुगीन हिंदी छन्दोग्रंथों में ही मिलती है । रत्नशेखर के 'छन्दःकोश' में इसका कोई उल्लेख नहीं है। गुजराती और मराठी काव्यपरंपरा में यह अलग से छन्द के रूप में स्वीकृत नहीं रहा है । 'दलपतपिंगल' के रचनाकार कवीश्वर दलपतराम डाह्याभाई और 'छन्दोरचना' के लेखक श्री माधव त्रि० पटवर्धन इसका स्वतंत्र उल्लेख नहीं करते । पटवर्धन ने 'प्रबालानंद' जाति के षोडशमात्रिक जातिविस्तार में इसका संकेत अवश्य किया है, पर वे इसका कोई मराठी उदाहरण नहीं देते और इसे स्पष्ट रूप से प्राकृत छंद घोषित करते हैं । इस छंद का प्रयोग मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में मिलता है। केशवदास की 'छन्दमाला' में तो इस छंद का लक्षणोदाहरण नहीं मिलता, पर 'रामचन्द्रिका' में इसका प्रयोग किया गया है । अति मुनि । तन मन । तहँ मो- । हि रह्यो, कछु बुधि । बल बच- । न न जा- । इ कह्यो । पसुं पं- । छि नारि । नर निर- । खि तबै, दिन रा- । मचंद्र । गुन गन- । त सबै ॥ (रामचंद्रिका १.४४) १. गण विप्प सगण धरि पअह पअं, भण सिंहअलोअण छंद वरं । गुणि गण मण बुज्झहु णाअ भणा, णहि जगणु ण भगणु ण कण्ण गणा || - प्रा० पैं० १.१८३ २. वाणीभूषण १.१०९ ३. ची पद्धडिका । चगणचतुष्कं पद्धडिका । - छन्दोनु० ६.३० ४. सिंहावलोकित व पज्झटिका हे प्राकृत छन्द प्रबालानन्द जातींच समाविष्ट होतात. - छन्दोरचना पृ. १४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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