SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 619
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९४ प्राकृतपैंगलम् संभु सरासन काहु न टारा । हारे सकल बीर बरियारा ॥ तीनि लोक महँ जे भट मानी । सब कै सकति संभु धनु भानी ।। गुजराती कवि दलपत भाई ने भी इसके पादांत में 'दो गुरु' (55) की ही व्यवस्था मानी है। वे इसे 'चरणाकुल' कहते हैं। आगे चलकर हिंदी छन्दःशास्त्र में इसे 'चार चतुर्मात्रिक गणों से बना छन्द माना जाने लगा, जिसके अंत में सदा 'गुरुद्वयात्मक' (55) चतुष्कल की व्यवस्था पाई जाती है। कुछ लोगों के अनुसार 'पादाकुलक' में विषम मात्रिक गणों (त्रिकल और पंचकल) का प्रयोग निषिद्ध है, पर पुराना कोई लेखक इस बात पर जोर नहीं देता । मेरी समझ में इस छन्द की एक मात्र पाबंदी अन्तिम गण की गुरुद्धयात्मकता ही है । पादाकुलक का सर्वप्रथम प्रयोग अपभ्रंश बौद्ध कवि सरहपा में मिलता है। उनकी कविताओं के षोडशमात्रिक छंदों में फुटकल पादाकुलक बीच बीच में मिल जाते हैं, जैसे 'किन्तह तित्थ तपोवण जाई । मोक्ख कि लब्भइ पाणी न्हाई ।। छाडहु रे आलीका बन्धा । सो मुंचहु जो अच्छहु धन्धा ॥३' इसके बाद कबीर की रमैनियों, जायसी और तुलसी की चौपाइयों में तथा अन्य कवियों में भी पादाकुलक के खण्ड देखे जा सकते हैं । जायसी से एक पादाकुलक का नमूना यह है : बरनौं माँग सीस उपराहीं । सेंदुर अवहिं चढ़ा जेहि नाहीं । बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ । उजियर पंथ रैनि महँ कीआ ॥ आगे चलकर हिंदी काव्यपरम्परा में 'पादाकुलक' की स्वतंत्र सत्ता खो गई है, वह हिंदी के प्रसिद्ध छंद 'चौपाई' में घुलमिल गया है। पज्झटिका १७७. पादाकुलक की ही तरह यह भी १६ मात्रा वाला सममात्रिक चतुष्पदी छन्द है। प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इसके हर चरण में चार चतुर्मात्रिक गणों की रचना की जाती है, जिनमें अंतिम चतुष्कल ‘पयोधर' (151, जगण) होना आवश्यक है। इस प्रकार पादाकुलक और पज्झटिका में यह अन्तर है कि पादाकुलक के चरणांत में '55' होते हैं, पज्झटिका में '11', और इस परिवर्तन से दोनों की गति और लय में फर्क आ जाता है। पज्झटिका बड़ा पुराना छन्द है। इसका उल्लेख 'पद्धडिय' के नाम से सर्वप्रथम नंदिताढ्य के 'गाथालक्षण' में मिलता है, किंतु नंदिताढ्य के लक्षणोदाहरण पद्य में पादांत में 'जगण' व्यवस्था का कोई संकेत नहीं मिलता। उनके उदाहरण में पादांत में सर्वत्र 'भगण' (51) की व्यवस्था मिलती है, यद्यपि लक्षण में इसका भी नियमतः उल्लेख नहीं पाया जाता । स्वयंभूच्छन्दस् के अनुसार ‘पादाकुलक' की गणव्यवस्था '६+४+६' है । यही षोडशमात्रिक छंद जब '४ + ४ + ४ + ४' (चार चतुष्कल) की गणव्यवस्था के अनुसार निबद्ध किया जाता है, तो इसे 'पद्धडिआ' कहा जाता है । हेमचन्द्र भी 'पद्धडिका' का लक्षण हर चरण में केवल 'चार चतुष्कल' का होना ही मानते हैं । (ची: पद्धडिका । चगणचतुष्कं पद्धडिका - छन्दोनु० (६.३०) उनके उदाहरण से भी यह स्पष्ट है कि वे 'पद्धडिका' (पज्झटिका) के पादांत में 'जगण' की व्यवस्था नहीं मानते । हेमचन्द्र के 'पज्झटिका' छन्द के निम्न उदाहरण में प्रथम अर्धाली 'भगणान्त' (|) है, द्वितीय अर्धाली 'नगणांत' (1) । १. चरण चरणमां मात्रा सोळे, ताल धरो चोपाई तोले । छे गुरु बे जो छेवट ठामे, छंद नकी चरणाकुळ नामे ॥ - दलपतपिंगल २.७९ २. आधुनिक हिंदी काव्य में छंदयोजना पृ. २५९ ३. हिंदी काव्यधारा पृ. ६ ४. पद्मावत (नखशिख-खंड), पृ. ४१ ५. प्रा० पैं० १.१२५ सोलस मत्तउ जहिं पउ दीसइ । अक्खरमत्तु न किंपि गवीसइ ।। पायउ पायउ जमकविसुद्धउ । पद्धडिय तहिं छंद पसिद्धउ ॥ - गाथालक्षण पद्य ७६. ७. सोलहमत्तं पाआउलअं। (छ च छ) सविरइअं संकुलअं॥ तं चेअ चआरचउक्कं । तं जाणसु पद्धडिआ धुवअं॥ - स्वयंभूच्छंदस् ६.१६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy