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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ५९३ इस छंद में चतुष्कल गणव्यवस्था न होने पर यही 'मानव' छंद होता है । 'हाकलि' छंद और उसका 'मानव' वाला रूप दोनों प्रसाद के आँस में मिलते हैं। शशिमुख । पर धूं- / घट डा- / ले, ४ + ४ + ४ + 5 अंचल / में दी- / प छिपा- / ये। ४ + ४ + ४ + 5 जीवन / की गो- । धूली । में, ४ + ४ + ४ + 5 कौतू- / हल से / तुम आ- / ये ॥ ४ + ४ + ४ +5 (ऑसू पृ. १९) 'आँसू' का उक्त छंद 'हाकलिका' (हाकलि) का शुद्ध निदर्शन है, फर्क सिर्फ इतना है कि मध्ययुगीन काव्यपरंपरा में इसकी तुक क-ख; ग-घ वाली पद्धति की पाई जाती है, यह तुक मैथिलीशरण गुप्त के यहाँ ज्यों की त्यों सुरक्षित है, किंतु प्रसाद ने इस छंद में दो तुकों की व्यवस्था हटाकर केवल एक ही तुक रक्खी है, और वह भी 'ख-घ' (द्वितीयचतुर्थ) कोटि की, जिससे छंद की गूंज में परिवर्तन आ गया है । पादाकुलक ६ १७६. पादाकुलक समचतुष्पदी छंद है, जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ पाई जाती हैं। प्राकृतपैंगलम के अनुसार ‘पादाकुलक' में लघु गुरु व्यवस्था और मात्रिक गण व्यवस्था की कोई पाबंदी नहीं पाई जाती । इस छन्द का सर्वप्रथम संकेत स्वयंभूच्छन्दस् में मिलता है, जहाँ इसका लक्षण सामान्यतः प्रतिचरण सोलह मात्रा ही दिया है । बाद में राजशेखर सूरि ने भी इसका उल्लेख किया हैं, किंतु यहाँ भी गणव्यवस्था के विषय में कोई खास विशेषता नहीं मिलती।' दामोदर के 'वाणीभूषण' में भी यहाँ लघु गुरु व्यवस्था के नियम की ढिलाई का संकेत किया गया है और यह लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही लक्षण का उल्था हैं। स्पष्ट है कि प्राकृत पैंगलम् के समय तक 'पादा-कुलक' के लक्षण में केवल १६ मात्रा का प्रतिचरण होना ही पर्याप्त माना जाता था । मध्ययुगीन हिंदी कविता में आकर 'पादाकुलक' का लक्षण कुछ बदल गया है, इसके चरण के अन्त में 'दो गुरु' (55) की व्यवस्था आवश्यक मानी जाने लगी है। इस विशेषता का संकेत हमें सर्वप्रथम केशवदास की 'छन्दमाला' में मिलता है ।३ उनका उदाहरण निम्न है : बहु बनवारी सोभित भारी । तपमय लेखी ग्रहयिति देखी । सुभ सर सो| मुनिमन लोभै । सरसिज फूले अति रसभूले | उक्त उदाहरण में सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि यहाँ पादांत में तुकव्यवस्था नहीं मिलती। 'भारी-देखी', 'लोभैभूले' में परस्पर अतुकांतता पाई जाती है। पादाकुलक छन्द में 'क-ख' 'ग-घ'- वाली तुक का होना सर्वथा आवश्यक है, जिसका इस उदाहरण में अभाव है। दूसरे, इस उदाहरण के प्रत्येक चरण में आठ आठ मात्रा के यतिखंडों के बाद 'वारी-भारी', 'लेखी-देखी', सोभै-लोभै' और 'फूले-भूले' की तुल मिलती है, जो पादाकुलक के पुराने लक्षणों में संकेतित नहीं है, न गुजराती पिंगल ग्रंथ 'दलपतपिंगल' ही इस आभ्यंतर तुक का संकेत करता है । स्पष्ट ही केशवदास के पादाकुलक-लक्षण से उनका उदाहरण पूरी तरह मेल नहीं खाता । उदाहरणपद्य किसी अष्टमात्रिक छन्द का उदाहरण है, जिसमें अंतिम दो अक्षर गुरु हैं। इसे 'पादाकुलक' कहना कहाँ तक ठीक है? केशव के लक्षण के अनुसार तो 'पादाकुलक' का उदाहरण गोस्वामी तुलसीदास की निम्न चौपाई हो सकती है : १. डा० पुत्तू काल शुक्लः आधुनिक हिंदी काव्य में छंदयोजना पृ. २५३ २. लघु गुरु एकणिअम णहि जेहा । पअ पअ लेक्खउ उत्तम रेहा । सुकइ फणिदंह कंठह वलअं । सोलहमत्तं पाआउलअं ॥ - प्रा० पैं० १.१२९ ३. स्वयंभूच्छन्दस् ६.१६० ४. राजशेखरसूरि : ५.१७१ ५. वाणीभूषण १.७५ ६. बारह मत्ता प्रथम चहुँ दोइ देउ गुरु अंत । सोरह मत्ता चरन प्रति पादाकुलिक कहंत ॥ - छंदमाला २.३५ पृ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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