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________________ ५९२ प्राकृतपैंगलम् श्रीधर कवि के 'छन्दविनोद' में 'हाकलि' छंद में 'भगण' की व्यवस्था का नियमतः संकेत किया गया है। भिखारीदास के उदाहरण पद्य से पता चलता है कि हिंदी कवियों में इसके दुहरे रूप प्रचलित थे । कुछ कवियों ने आरंभ में तीन भगण की योजना कर इसे स्पष्टतः दशाक्षर (भ भ भ ग) चतुर्दशमात्रिक छंद बनाकर एक तरह से वर्णिक रूप दे दिया था । कुछ कवि प्रथम तीन चतुष्कलों की योजना अनेक प्रकार से कर इसके वास्तविक स्वरूप को सुरक्षित रख रहे थे। भिखारीदास के उदाहरण पद्य में इसका पुराना स्वरूप ही मिलता है, केशवदास या श्रीधर कवि वाला नहीं। परतिय गुरतिय तूल गनै । परधन गरल समान भने । हिय नित रघुबर नाम रै । तासु कहा कलिकाल करै ।। (छंदार्णव ५.११५) केशवदास की 'छन्दमाला' वाली 'हाकलिका' से कुछ भिन्न 'हाकलिका' का स्वरूप हमें 'रामचन्द्रिका' में मिलता है। रामचन्द्रिका के प्रथम प्रकाश का ३६वाँ छंद हिन्दुस्तानी एकेडेमी वाले आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के संपादित पाठ तथा लाला भगवानदीन वाली 'केशवकौमुदी' में सर्वथा भिन्न २ नामों से दिया गया है। प्रस्तुत छंद यह है : संग लिये रिषि सिष्यन घने । पावक से तपतेजनि सने ॥ देखत बाग-तडागनि भले । देखन औधपुरी कहँ चले ॥२ आचार्य मिश्र के संस्करण में यह 'हाकलिका' छन्द कहा गया है। लाला जी के संस्करण में चौबोला । लाला जी ने इसे वर्णिक वृत्त माना है। इस पर टिप्पणी देते वे लिखते हैं :- 'यह केशव का खास छन्द है। इसका प्रवाह चौबोला का सा है, पर है वर्णिक वृत्त । इसका रूप है तीन भगण और लघु गुरु (भ भ भ ल ग) ।" स्पष्ट है, मूल 'हाकलिका' के साथ अंत में गुरु के पहले एक लघु जोड़ कर यह छन्द बनाया गया है, जो चतुर्दशमात्रिक 'हाकलिका' न होकर पंचदशमात्रिक छन्द है। संभवतः यह केशवदास ने परंपरागत 'हाकलिका' के आधार पर नया प्ररोह बना लिया हो । 'छन्दमाला' वाली केशवसम्मत 'हाकलिका' चतुर्दशमात्रिक है, इसका प्रमाण इसी प्रसंग में ऊपर उद्धत केशव के लक्षणीदाहरण पद्यों से चलेगा, जहाँ स्पष्टतः दशाक्षर और चतुर्दशमात्रिक योजना पाई जाती है। 'हाकलिका' के इस अभिनव प्ररोह का लक्षण किसी छन्दोग्रंथ में तो नहीं मिलता, लेकिन 'रामचन्द्रिका' का प्रतापगढ़ से प्राप्त सं० १८६६ का हस्तलेख इसका लक्षण यों देता है, जो आचार्य मिश्र ने केशवग्रंथावली खंड २ के परिशिष्ट पृ. ४२२ पर प्रकाशित किया है : तीनि भगन कहँ कीजिए लघु इक इक गुरु अन्त । हाकलिका सो छंद है बरनत कवि बुधवंत ॥ स्पष्ट है कि यहाँ भी तीन भगण और अंतिम गुरु के पूर्व एक लघु की योजना का संकेत है, जो केशव के आलोच्य छंद में उपलब्ध है। भानुजी ने 'छन्द:प्रभाकर' में 'हाकलि' के पुराने लक्षण को ही लिया है और वे चतुष्कलों का भगण होना जरूरी नहीं सझते । आधुनिक युग में हिंदी कवि मैथिलीशरण गुप्त ने इसका प्रयोग 'साकेत' के चतुर्थ सर्ग में किया है, किंतु गुप्त जी ने सर्वत्र गणव्यवस्था की पूरी पाबंदी नहीं की है और कहीं कहीं अंत में 'गुरु' (5) वाले नियम का उल्लंघन कर उसके स्थान पर 'दो लघु (I) की योजना भी की है। इसी स-/मय प्रभु । अनुज स- / हित, ४ + ४ + ४ + || पहुँचे । वहाँ वि- | कार र- / हित । ४ + ४ + ४ + || जब तक / जाय प्र- / णाम कि- / या, ४+ ४ + ४ + 5 माँ ने / आशी- /र्वाद दि-/ या ॥ ४ + ४ + ४ + 5 (साकेत. पृ. ७३) १. छन्दविनोदपिंगल २.२८ २. हमने यह पाठ "हिंदुस्तानी एकेडेमी' वाले संस्करण (पृ. २३२) के अनुसार दिया है । लालाजी के संपादित संस्करण में 'रिषि' 'सिष्यन' और 'तड़ागनि' के स्थान पर क्रमश: 'ऋषि' 'शिष्यन' और 'तड़ागन' है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से आचार्य मिश्र का पाठ अधिक ठीक है। ३. मिलाइये : केशवग्रंथावली खंड २ पृ. २३२, केशवकौमुदी (पूर्वाध) पृ. १५ ४. त्रय चौकल गुरु हाकलि है | - छन्दःप्रभाकर पृ. ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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