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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ५९१ हाकलि $ १७५. हाकलि छंद के प्रत्येक चरण में १४ मात्रा होती हैं जिनमें आरंभ में तीन चतुष्कल और अंत में एक गुरु होता है । चतुष्कलों की व्यवस्था सगणात्मक (Is), भगणात्मक (50) या सर्वलघु चतुष्कल (III) होनी चाहिए। इससे यह संकेत मिलता है कि यहाँ 'जगण' (151) तथा द्विगुरु (55), इन दोनों चतुष्कल भेदों का सर्वथा वारण किया जाना आवश्यक है। गुजराती छन्दों-ग्रन्थों में यह छन्द 'हाकलि' न कहलाकर 'हालक' के नाम से प्रसिद्ध है किंतु हिन्दी में इसे 'हाकलिका' कहा जाता है। 'दलपतपिंगल' के अनुसार इसकी गणव्यवस्था '४+४+४+5' है तथा कहीं भी 'जगण' का विधान निषिद्ध है । यह छंद चतुर्मात्रिक ताल में गाया जाता है और पहली, पाँचवी, नवीं और तेरहवीं मात्रा पर ताल दी जाती है ।२ 'वाणीभूषण' में निर्दिष्ट गणव्यवस्था प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है ।३।। __ हेमचन्द्र के छन्दोनुशासन में चतुर्दशमात्रिक समचतुष्पदी मिलती है, जिसकी गणव्यवस्था 'छ च च' या 'च च च द' दोनों तरह की मानी गई है। इस छंद को हेमचन्द्र ने 'गंधोदकधारा' कहा है। इस छंद के लक्षण में कहीं भी चतुष्कल गणों की अभीष्ट प्रकृति का संकेत नहीं मिलता और न 'जगण' का निषेध ही किया गया है । हेमचन्द्र की 'गंधोदकधारा' का विवरण निम्न है : षचाश्चिदौ वा गंधोदकधारा । षण्मात्रश्चतुर्मात्रद्वयं यदि वा चतुर्मात्रत्रयं द्विमात्रश्च सा गंधोदकधारा । यथारमणिकवोलकुरंगमय- । पत्तलपाविलअंसुभवि ॥ धणगंधोदयधारभरि । वइरिय तुअ ण्हायंति सवि ।। (छंदो० ६.२८) (हे राजन्, तुम्हारे सभी बैरी अपनी रमणियों के कपोल पर विरचित कस्तूरी की पत्ररचना के द्वारा काले किये आँसुओं से उत्पन्न गंधोदकधारा में स्नान कर रहे हैं ।) । हेमचन्द्र के इस उदाहरण में अंतिम 'द्विकल' गुर्वक्षर ही है, जो छंद में 'लघु' होनेपर भी 'पादांतस्थ' होने से गुरु माना गया है। अन्यथा हर चरण में चौदह मात्राएँ न होकर तेरह ही मात्राएँ होंगी । स्पष्ट है, यही 'गंधोदकधारा' विकसित होकर प्राकृतपांगलम् में 'हाकलि' के रूप में दिखाई पड़ती है। हेमचन्द्र के छंद में 'जगण' का निषेध नहीं है और तुक द्वितीय-चतुर्थ चरणों के अंत में है, यह भेद अवश्य मिलता है। मध्ययुगीन हिंदी कविता में आकर 'हाकलिका' छंद के प्रथम तीन चतुर्मात्रिक गणों को नियत रूप से आदिगुर्वात्मक (भगण) रखने की व्यवस्था चल पड़ी है । इसका संकेत केशवदास की 'छंदमाला' में मिलता है । करै सु कवि नृप जानि, भगन तीनि दै अंत गुरु ।। हाकलिका परमानि, प्रतिपद चौदह मत्त सब ॥ (छंदमाला २.४२)४ १. सगणा भगणा दिअगणई, मत्त चउद्दह पअ पलई । संठइ वंको विरइ तहा, हाकलि रूअउ एहु का ॥ - प्रा० पैं० १.१७२ २. जुग जुग जुग कळ गुरु अंते, हालक छंद कह्यो संते । प्रथम पछी चारे चारे, ताळ घरे, न जगण धारे ॥ - दलपतपिं० २.५२ ३. द्विजगणसगणभगणकलिता, भवति चतुर्दशकलकलिता । अन्तगुरुमुपधाय- यदा, हाकलिरेषा भवति तदा ॥ - वाणीभूषण १.९७ ४. केशव ग्रंथावली (हिंदुस्तानी एकेडेमी) में संपादित 'छंदमाला' के उक्त सोरठा में, हाकलिकालक्षण में 'मगन तीनि दै' पाठ है, जो संभवतः प्रूफ की गलती है, क्योंकि यहाँ तीन मगण मान लेने पर तो छंद के प्रत्येक चरण में २० मात्रा हो जायेंगी। साथ ही केशव का उदाहरण भी 'भगन तीनि दै' पाठ की पुष्टि करता है, जिसमें 'तीन भगण + गुरु' की व्यवस्था मिलती है। आवत श्री ब्रजराज बनै । केवल तेरहि रूप सने । तू तिनसों हँसि बात कहैं । सौतिन को गन दुख्ख दहै ॥(दे० केशवग्रंथावली भाग २, पृ. ४५५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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