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________________ ५९० प्राकृतपैंगलम् सुंदरािगुज्ज- | रि णारि, लोअण । दीह । विसारि । पीण प-। ओह- । रभार, लोलइ । मोत्ति-। अहार ।। (प्रा० पैं० १.१७८) 'आभीर' में मात्रिक गणों का यह विभाजन माने बिना इसकी तालव्यवस्था नहीं बैठ सकेगी। यह छंद चतुर्मात्रिक ताल में गाया जाने वाला छंद है, जिसकी पहली, पाँचवीं और नवी मात्रा पर ताल पड़ती है। प्रथम गण को चतुष्कल माने बिना यहाँ दूसरी ताल पाँचवीं मात्रा पर नहीं पड़ सकेगी । दलपतपिंगल में इसकी तालव्यवस्था का संकेत मिलता है। आभीर की मात्रिक गणव्यवस्था का स्पष्ट विभाजन दामोदर का 'वाणीभूषण' भी नहीं देता; वहाँ केवल अंत में जगण के होने की पाबंदी का ही जिक्र है। हेमचन्द्र के यहाँ केवल एक ही एकादशमात्रिक समचतुष्पदी 'मारकृति' का उल्लेख है, जिसकी गणव्यवस्था 'च पद' या 'च च त' है । 'आभीर' छन्द 'मारकृति' के दूसरे भेद 'च च त' वाले छन्द से मिलता है, किंतु यहाँ अंतिम गण चतुष्कल (जगण) माना गया है, 'मारकृति' में वह 'त' (त्रिकल) है और हेमचन्द्र इसका भी संकेत नहीं करते कि यह 'विकल' नियमत: '5।' ही हो। हम देखते हैं कि दलपतपिंगल के मतानुसार आभीर के अंत में 'गल' 's।' ही अभीष्ट है, इसके पूर्व भी 'ल' हो तथा अंतिम गण 'जगण' हो ही यह आवश्यक नहीं । किंतु प्रा० पैं०, वाणीभूषण, छन्दमाला, छन्दविनोद, छन्दार्णव सभी हिंदी छन्दोग्रन्थ 'जगण' की व्यवस्था जरूरी मानते हैं । ऐसा अनुमान है कि प्राकृतपैंगलम् के पहले इस छंद की गणव्यवस्था 'चतुष्कल + चतुष्कल + आदिगुरु त्रिकल (51)' थी, और पहले हेमचन्द्र के समय इसकी रचना में 'त्रिकल' किसी भी प्रकार का हो सकता था। नवी मात्रा पर तीसरी ताल पड़ने के कारण यहाँ गुर्वक्षर की योजना की जाने लगी और यह भी हो सकता है कि ऐसा भेद हेमचन्द्र के समय ही लोकगीतों में प्रचलित रहा हो, किंतु हेमचन्द्र ने उसे सामान्यतः 'मारकृति' ही कह दिया है। जैसा कि इसका नाम ही संकेत करता है यह अहीरों का लोकगीतात्मक छंद है। मध्ययुगीन हिंदी कविता में केशवदास की 'छन्दमाला' और 'रामचन्द्रिका' दोनों जगह इस छंद के दर्शन होते हैं। केशवदास के लक्षण में कोई खास बात नहीं मिलती, वे भी पादांत में जगण व्यवस्था का संकेत करते हैं। किंतु रामचन्द्रिका में 'आभीर' के सदोष निदर्शन भी मौजूद है उदाहरण के लिये निम्न पद्य में चतुर्थ चरण के अंत में 'जगण' नहीं पाया जाता और प्रथम चतुष्कल के बाद के त्रिकल को इसी चरण में गुर्वक्षर के द्वारा निबद्ध किया गया है, जहाँ चौथी-पाँचवीं मात्रा संयुक्त कर दी गई है। अतिसुंदर अति साधु, थिर न रहति पल आधु । परम तपोमय मानि, दंडधारिनी जानि ॥ (राम० १.३८) 'दंडधारिनी जानि' की गणव्यवस्था का विश्लेषण करने में 'च त च' और अंतिम 'च' की जगणात्मकता नहीं मिलती । यहाँ अंतिम त्र्यक्षरसमूह 'नीजानि' अंतलघु पंचकल (तगण) हो गया है, जो छंद का स्पष्ट दोष है। ऐसा जान पड़ता है, लक्षण में 'जगण' की व्यवस्था करने पर भी कवि व्यावहारिक रूप में केवल 'गल' (5) वाले अंत तक ही नियम का पूरा पालन करते थे और यह इस चरण में भी मिलता है। भिखारीदास ने ग्यारह मात्रा वाले छंदों में 'अहीर' का उल्लेख किया है, वे इसके लक्षण का संकेत तो नहीं करते पर उदाहरण पद्य में 'जगण' की व्यवस्था दिखाई पड़ती १. पद मात्रा अगियार, आभिर छंद विचार । छेवट गु, ल, संभाळ, भू शर भक्ती ताळ || -दलपतगल २.३६ २. एकादशकलधारि, कविकुलमानसहारि । इदमाभीरमवेहि, जगणमन्तमधिधेहि || - वाणीभूषण १.१०१ ३. छंदोनुशासन ६.१२३. ४. छंदमाला २.२४ ५. कौतुक सुनहु न बीर । न्हान धसी तिय नीर । चीर धरयौ लखि तीर । लै भजि गयो अहीर ॥ - छंदार्णव ५.७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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