________________
अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द त्रीजी अने आठ, त्यां ताल नो ठाठ ।
पण पाँचमी मात्र, ते लघु तणुं पात्र ॥ (दलपत० २.३१). ॥ दामोदर के 'वाणीभूषण' का लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है ।
हेमचन्द्र ने दसमात्रा वाली सम चतुष्पदी 'शशांकवदना' का संकेत किया है, पर उसकी गणव्यवस्था 'दीपक' (च प ल) जैसी न होकर 'च च द' है । इससे यह स्पष्ट है कि 'शशांकवदना' और 'दीपक' मात्रा गणना की दृष्टि से एक-से होने पर भी विभिन्न तालों में गाये जाने वाले छंद हैं । हेमचन्द्र का छन्द (शशांकवदना) चार-चार मात्रा की ताल में गाया जाता होगा, जबकि हमारा 'दीपक' छंद पाँच पाँच मात्रा की ताल में । फलतः इन दोनों की लय, गति और गूंज में स्पष्ट अन्तर मिलेगा। हेमचन्द्र की 'शशांकवदना' का लक्षणोदाहरण निम्न है :
चौदः शशांकवदना । द्वौ चतुर्मात्रौ द्विमात्रश्चकैः शशांकवदना । यथानवकुवलयनयण । ससंकवयण धण ॥
कोमलकमलकर । उअ सरयसिरि किरि ।। (छन्दो०६-२३) यहाँ अंतिम लघ्वक्षर की एख मात्रा न मान कर हेमचन्द्र ने दो मात्राएँ मानी हैं, तथा यहाँ 'पादांतस्थं विकल्पेन' वाले नियम को लागू किया है। अन्यथा प्रत्येक चरण में नौ ही मात्रा होंगी, जो पूर्वोक्त लक्षण के विरुद्ध पड़ेंगी। स्वयंभू में इस तरह की कोई सम चतुष्पदी नहीं मिलती। वैसे वहाँ दस मात्रा वाली सम द्विपदी 'ललअअत्ति' (ललयवती) का उल्लेख है, जिसके प्रत्येक चरण में दो पंचमात्रिक गणों की योजना पाई जाती है ।
केशवदास की 'छन्दमाला' और 'रामचंद्रिका' दोनों में यह छन्द नहीं मिलता । श्रीधर कवि के 'छन्दविनोद' में इसका लक्षण प्राकृतपैंगलम् के अनुसार ही निबद्ध किया गया है। भिखारीदास ने दशमात्रिक प्रस्तार के छन्दों में इसका उल्लेख किया है, लेकिन वे इसका कोई लक्षण नहीं देते । उनके उदाहरण पद्य में 'च पल' वाली व्यवस्था की पाबंदी मिलती है।
जय जय- । ति अगबं- । द, मुनि को- । मुदीचं- । द । त्रैलो- | क्य अवनी- । प
दसरत्- । त्थ कुलदी- । प ॥ (छन्दार्णव ५.७३) आभीर (अहीर)
१७४. प्राकृतपैंगलम् के अनुसार 'आमीर' (अहीर) छंद ग्यारह मात्रा का सममात्रिक चतुष्पदी छंद है। इस छंद के प्रत्येक चरण में ग्यारह मात्रा, अंत में चतुर्मात्रिक जगण (151) की व्यवस्था है। आरंभ की सात मात्राएँ किस किस मात्रिक गण में विभक्त होंगी, इसका कोई उल्लेख प्राकृतपैंगलम् का लक्षणपद्य नहीं करता । हमारा अनुमान है कि इस छंद में मात्रिक व्यवस्था "च त च" (चतुष्कल + त्रिकल + मध्यगुरुचतुष्कल (जगण) के क्रम में की जाती है। इसकी पुष्टि प्राकृतपैंगलम् के लक्षण तथा उदाहरण दोनों का विश्लेषण करने से होती है, जहाँ पाँचवीं मात्रा स्पष्टतः चौथी मात्रा के साथ संयुक्त नहीं की गई है।
१. प्रा० पैं० १.१८१ २. तुरगैकमुपधाय, सुनरेन्द्रमवधाय ।
इह दीपकमवेहि, लघुमन्तमधिधेहि ॥ - वाणीभूषण १.१०७ ३. स्वयंभूच्छंदस् ७.१० ४. कल चारि पुनि पाँच, एक लघु साँच ।
दस मत्त पद चारि, दीपक्क सुभ धारि ॥ - छंदविनोद २.३१ ५. प्रा० पैं० १.१७७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org