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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द परगुणगणु सदोपसायणु । महुमहुरक्खरहिअमिअभास ॥ उवयारिण पडिकिआ वेरिअणहै। इअ पद्धडी मणोहर सुअणहँ ॥ (छन्दोनु० ६.१२८) इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि शास्त्रीय परंपरा के अपभ्रंश छन्दः शास्त्री 'पज्झटिका' के पादांत चतुष्कल को नियमतः 'जगण' नहीं मानते थे। पञ्झटिका छन्द का प्रयोग स्वयंभू पुष्पदंत, धनपाल आदि अनेक जैन कवियों ने अपने प्रबंधकाव्यों के कड़वकों में किया है। वे सभी कवि 'पद्धडिया' की नियमतः जगणांत रचना नहीं करते, वैसे बीच बीच में जगणांत खंड भी मिल जाते हैं। जैसे, स्वयंभू की निम्न पद्धडिया में - 'जं राम- सेण्णु णिम्मल जलेण । संजीवेउ संजीवणि-बलेण ॥ तं वीरेहि वीररसाहिएहि वग्गतेहि पुलय पसाहिएहि । ( रामायण ६९-२० ) अपभ्रंश काव्यपरम्परा में ही पिछले दिनों 'पद्धडिया' में 'जगणांत' व्यवस्था जरूरी मानी जाने लगी थी। पुरानी हिंदी के भट्ट कवियों को यही परंपरा मिली है और इस परंपरा का संकेत रत्नशेखर के 'छंद: कोश' में भी मिलता है, जिन्होंने अंतिम चतुष्कल का 'जगण' होना लिखा है। वस्तुतः षोडशमात्रिक प्रस्तार के अन्य छन्दों पादाकुलक, वदनक, अडिला आदि से 'पज्झटिका के भेदक तत्त्व के रूप में 'इसका उल्लेख किया जाने लगा था। षोडशमात्रिक प्रस्तार के विविध छन्द अपभ्रंश कवियों के यहाँ प्रबंध काव्य के कडवकों में प्रयुक्त होते रहे हैं। ये सभी छंद आठ-आठ या चार-चार मात्रा के टुकड़ोंकी 'धूमाली' ताल में गाये जाते रहे हैं इनमें ताल क्रमश: पहली, पाँचवी, नवीं और तेरहवीं मात्रा पर पड़ती हैं। अपभ्रंश षोडशमात्रिक तालच्छदों की तालव्यवस्था ठीक यही थी किंतु गुजराती कवि दलपतभाई ने इसकी ताल क्रमशः तीसरी, छठी, ग्यारहवीं और चौदहवीं मात्रा पर मानी है ।ऍ इस संबंध में श्री रामनारायण पाठक लिखते हैं I : "त्यां आपणे जोयुं के ए प्राचीन उत्थापनिकामां दलपतरामनी तालयोजना बेसी शकती नथी, केम जे तेमां त्रीजी मात्रा तो तालने माटे अवश्य उपलभ्य होय छे पण ते पछीनी छडी उपलभ्य होती नथी पण आपणे माटे एटलं बस नथी। दलपतरामनी ते भले प्राचीन अपभ्रंशनी पद्धरी नथी । २" १. अपभ्रंश छन्दः शास्त्रियोंने पद्धडिया के अलावा और भी कई षाडशमात्रिक छन्दों का संकेत किया है। इनमें कई तो परस्पर अभिन्न दिखाई पड़ते हैं, किंतु इनमें कोई न कोई लयगत भेद अवश्य जान पड़ता है। इन छन्दों का विवरण निम्न है : Jain Education International १. संकुलक १६ (६, ४, ४, २) हेम० (५.२५), राज० (५.१७२). २. मात्रासमक १६ (४५४) कविदर्पण (२.१९) ३. विश्लोक १६ (४४४) कविदर्पण (२.१९) ४. चित्रा १६ (४४) कविदर्पण (२.२० ) ५. वानवासिका १६ (४४) कविदर्पण (२.२० ) ६. उपचित्रा १६ (४x४ ) कविदर्पण (२.२०) ७. मुक्तावलिका १६ (३x४, ४) कविदर्पण (२.२१) ८. वदन (बदनक) १६ (६, ४,४,२) हेम० (५.२८), कवि० (२.२१) राज० (५.१६ ). पय चारि ठविज्जहि ससिहि मत्त । पाऊहरु गणु जइ होइ अंत ॥ चउस िकलइ सव्वद गणेहु पद्धडिय छंदु तं बुह मुणेहु ॥ छंद: कोश पद्य ३६. । २. प्रति चरण सोळ मात्रा प्रमाण । ते चरण अंत जो जगण आण । दलपतपिंगल २-८७. ५९५ ९. रास १६ (४x२, 55 ) वृत्तजातिसमुच्चय (४.८५) १०. अप्सरा १६ (५, ५, जगण, 5 ) वृत्तजाति० (३.८) ११. चन्द्रिका १६ (५, ५, ४ ) वृत्तजाति० (३.१७) त्रण चक्र रुद्र रखें ज ताळ । पद्धरी छंदनो एज ढाळ || ३. बृहत् पिंगल पृ. ३७४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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