________________
५८६
प्राकृतपैंगलम् बनने के साथ ही साथ गेयत्व भी खो बैठा और तब तालखण्डों की सूचक आभ्यंतर तुक की कोई जरूरत न रही । वैसे श्रीधर कवि के नीचे पादटिप्पणी में उद्धृत लक्षणपरक उदाहरण में यह तुक सुरक्षित दिखाई पड़ती है, जिसका संकेत 'दीजिये-कीजिये ।' 'सकल-दल' जैसे तुकांत पद करते हैं । स्पष्ट है, गोस्वामी जी का 'झूलना' ३७ मात्रा वाला मात्रिक छंद बने रहने पर भी प्राकृतपैंगलम् की स्थिति से नवीन रूप में विकसित हो उठा है, जो निम्न उदाहरण से स्पष्ट होगा। पर यहाँ उसमें १०, १०, १०, ७ वाली यति-योजना सुरक्षित है।
सुभुज मारीच खर, त्रिसिर दूषन बालि, दलत जेहि दूसरो, सर न साँध्यो । आनि परबाम विधि, बाम तेहि राम सों, सकल संग्राम दस, कंध काँध्यो । समुझि तुलसीस कपि, कर्म घर घर घेरु, विकल सुनि सकलपाथोधि बाँध्यो । बसत गढ़ लंक लंकेस नायक अछत, लंक नहिं खात कोउ, भात राँध्यो ।
(कवितावली लंका० ४) यहाँ यह संकेत कर देना जरूरी होगा कि चतुर्थ चरण में प्रथम यति 'लंकेस' के 'लं' के ठीक बाद पड़ेगी। इसी तरह तृतीय चरण में तृतीय यति 'पाथोधि' के 'पा' के ठीक बाद है।
भिखारीदास ने 'झूलना' को चतुष्पदी छंद के रूप में ही लिया है, और यहाँ प्रतिचरण ३२ से अधिकमात्रा पाये जाने के कारण वे इसका वर्णन मात्रादंडको में करते हैं। उनका लक्षण इसमें १०, १०, १०, ७ की यति का स्पष्ट संकेत करता है। मुक्तक वर्णिक छंदो के प्रकरण में भिखारीदास वर्णिक झूलना का भी संकेत करते हैं, जिसमें प्रतिचरण २४ वर्ण होते हैं, तथा इच्छानुसार सगण, जगण की योजना की जाती है तथा तुकांत में दो गुरु (55) होते हैं । यह झूलना वस्तुतः ३७ मात्रा वाले मात्रिक झूलना का ही वर्णिक विकास है। मजे की बात तो यह कि भिखारीदास ने दोनों तरह के झूलना-भेदों का उदाहरण एक ही सा दिया है। केवल इनके द्वितीय-चतुर्थ चरणों में थोड़ा फर्क है; मात्रिक झूलना के द्वितीय-चतुर्थ चरणों में २३ अक्षर (३७ मात्रा) हैं, वर्णिक झूलना के द्वितीय-चतुर्थ चरणों में २४ अक्षर (३७) मात्रा; वाकी अन्य चरणों में दोनों में २४ अक्षर (३७ मात्रा) हैं ।
वर्णिक छंदों के प्रकरण में एक दूसरे 'झूलणा' का भी उल्लेख मिलता है, जो १९ वर्णों का छंद है, जिसमें लगात्मक उट्वर्णिका निम्न प्रकार से मिलती है :
'लल गालगालल गालगालल गालगालल गाल'
इस छंद का संकेत श्री रामनारायण पाठक ने 'बृहतपिंगल' में किया है। इस छंद में ७ गुरु और १२ लघु अर्थात् १९ अक्षर और २६ मात्रा होती हैं । यह झूलणा हमारे झूलणा से सर्वथा भिन्न छंद है।
यह वर्णिक 'झूलना' केशव की रामचन्द्रिका में कई बार प्रयुक्त हुआ है, जिसमें ७, ७, ७, ५ पर यति की व्यवस्था पाई जाती है। मूलत: यह छंद भी 'मात्रिक' ही है, जो बाद में वर्णिक बन बैठा है। इस छब्बीस मात्रा वाले एकोनविंशत्यक्षर झूलना के पदादि में 'सगण' तथा पदांत में 'जगण' की व्यवस्था नियत है। शेष तरह अक्षरों में ५ गुरु और ८ लघु किसी भी तरह नियोजित किये जा सकते हैं। इस छंद का एक निदर्शन यह है, जो हमारे आलोच्य झूलणा और गोस्वामीजी के उद्धृत झूलणा से सर्वथा भिन्न है :
तब लोकनाथ विलोकिकै रघुनाथ को निज हाथ । सविसेष सों अभिषेक कै पुनि उच्चरी सुभ गाथ । रिषिराज इष्ट बसिष्ट सों मिलि गाधिनंदन आइ । पुनि वालमीकि बियास आदि जिते हुते मुनिराई ॥
(रामचन्द्रिका २६.३०) १. छंदार्णव ९.२. २. कहूँ सगन कहुँ जगन है, चौबिस बरन प्रमान ।
गुरु द्वै राखि तुकंत मे, बरनझुल्लना ठान ।। - वही १४.९ ३. मिलाइये-छंदार्णवपिंगल ९.३ तथा १४.१०
४. बृहतपिंगल पृ. ११३. Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org