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प्राकृतपैंगलम् पद्य के रूप में भी प्रयुक्त होने लगा और यही छन्द 'घत्ता' के रूप में आदिकालीन और मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में सुरक्षित रहा है। 'घत्ता' का मूल अर्थ भी बदल गया है और यह अनेक तरह के छंदों की सामान्यसंज्ञा न रहकर एक खास तरह की सममात्रिक द्विपदी की विशिष्ट संज्ञा हो गयी है।
प्रस्तुत ३१ मात्रिक घत्ता द्विपदी छंद है, या चतुष्पदी या षट्पदी इस विषय पर डा० वेलणकर ने काफी विचारविमर्श किया है। प्राकृतपैंगलम् तथा मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा को भी इसे द्विपदी मानना ही अभीष्ट है। रत्नशेखर के 'छन्दःकोश' में इसे चतुष्पदी (विषमचरणः १८ मात्रा, समचरणः १३ मात्रा) माना गया है। किंतु कविदर्पणकार ने इसे षट्पदी घोषित किया है और प्रथम-चतुर्थ, द्वितीय-पंचम, तृतीय-षष्ठ चरणों में क्रमशः १०, ८ और १३ मात्रा मानी है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ये दोनों लेखक प्राकृतपैंगलम् के घत्ता वाले यतिखंडों को स्वतंत्र चरण मानते हैं, किंतु दोनों मत भी परस्पर एक दूसरे से भिन्न हैं। श्री वेलणकर कविदर्पण के ही पक्ष में हैं और वे घत्ता को स्पष्टतः षट्पदी घोषित करते हैं । हिंदी कविता के संबंध में हमें 'घत्ता' को द्विपदी मानना ही पसंद है और भट्ट कवियों में इसको द्विपदी ही माना जाता रहा है। प्राकृतपैंगलम् की परंपरा भी इसी मत के पक्ष में है। 'घत्ता' अष्टमात्रिक या उसके ही चतुर्मात्रिक भेद की ताल में प्रत्येक दल को ३२ मात्रिक प्रस्तार देकर गाया जाता रहा है। घत्तानन्द
६ १७०. घत्तानन्द वस्तुतः 'घत्ता' का ही अवांतर प्ररोह है, जहाँ पर प्रत्येक दल में १० + ८ + १३ के क्रम से यति न होकर ११ + ७ + १३ के क्रम से यति होती है। प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इसकी गणव्यवस्था यह है :६, ४,४,४,५,४,४ । दामोदर के 'वाणीभूषण' का लक्षण भी इसी के अनुसार है । केशव की छन्दमाला में 'घत्ता' का उल्लेख है, 'घत्तानंद' का अलग से उल्लेख नहीं है। भिखारीदास ने 'घत्ता' के साथ 'घत्तानंद' का अलग से उल्लेख किया है५ तथा भिन्न उदाहरण भी दिया है।
सखि सोवत माहि जानि, कछु रिस मानि, आइ गयो गति चोर की ।
सोयो ढिगहि चुपाइ, कहि नहि जाइ, घत्ता नंदकिशोर की ॥ (छंदार्णव ७, १८) श्रीधर कवि ने भी 'घत्ता' से स्वतंत्र रूप में 'घत्तानन्द' का उल्लेख किया है१, किंतु उनके लक्षण में कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं मिलती। इन सभी स्थलों को देखने से यह पता चलता है कि घत्तानंद में प्रथम-द्वितीय यति के स्थान पर आंतरिक तुक (जानि-मानि, चुपाइ-जाइ) का होना आवश्यक है और पाद के अन्त में 'क-ख' (a b) वाली तुक भी मिलती है - चोर की नंदकिशोर की। मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में घत्ता और घत्तानंद दोनों ही विशेष प्रचलित छन्द नहीं रहे हैं और आधुनिक हिंदी कविता में तो ये बिलकुल नदारद हैं।
घत्ता की तरह ही घत्तानंद को भी डा० वेलणकर षट्पदी छंद मानते हैं, जिसके प्रथम-चतुर्थ चरणों में ११ मात्रा, द्वितीय-पंचम चरणों में ७ मात्रा और तृतीय-षष्ठ चरणों में १३ मात्रा होती हैं। इस तरह यह अर्धसमा षट्पदी है, जिसमें पाई जाती है। विकासक्रम की दृष्टि से घत्ता की तरह घत्तानंद मूलतः षट्पदी है, और उसके षट्पदीत्व के अवशेष प्राकृतपैंगलम् और मध्ययुगीन हिंदी ग्रंथों में बचे रहे हैं ।
१. पय पढम समाणउ तीयउ, मत्त अढारउ उद्धरहु ।
बिय चउथ निरुत्तउ तेरह मत्तउ, घत्त मत्त बासठि करहु ।। - छंदःकोश पद्य ४३.
कविदर्पण २, २९-३१. 3. I am personally inclined to follow Kavidarpana and hence I have put the Ghatta under the Satpadis.
- Apabhramsa Metres I$24. छक्कलु आइहिं संठवहु तिण्णि चउक्कल देहु ।
पंचक्कल चउकल जुअल घत्ताणंद मुणेहु ॥ - प्रा० पैं० १.१०३ ५. एकादशविश्रामि तुरगविरामि यदि घत्तावृत्तं भवति ।।
छंदो घत्तानन्दमिदमानन्दकारि नागपतिरिति वदति ।। - वाणीभूषण १.६७ ६. ग्यारह मुनि तेरह विरति, जानौ घत्तानंद । - छंदार्णव ७.१६
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