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________________ ५८२ प्राकृतपैंगलम् लघुत्रय, बः ६+४+३ लघुत्रय; तुक 'ब-द' (hd) छप्पय की पिछली दो पंक्तियों के रूप में उद्याला का प्रयोग अपभ्रंश काव्य में मिलता है। संदेशरासक में इसका छप्पयगत अनेकशः प्रयोग हुआ है ।" मध्ययुगीन छन्दोग्रंथों और कविता में वाला का प्रयोग प्रायः छप्पय के ही अंग रूप में मिलता है। छंदविनोद, छंदार्णव आदि में छप्पय के साथ ही इसका लक्षण निबद्ध है। केशवदास ने 'छंदमाला' में अवश्य इसका लक्षण अलग से निबद्ध किया है । वे इस छंद के २८ मात्रा (१५, १३) वाले भेद का ही जिक्र करते हैं। पर केशवदास ने भी 'रामचंद्रिका' में 'अवाला' का स्वतंत्र प्रयोग नहीं किया, इसे छप्पय के अंग रूप में ही निबद्ध किया है। उपरिचर्चित उल्लाला - भेदों के अतिरिक्त नारायणदास वैष्णव ने एक तीसरे तरह के उल्लाला का भी संकेत किया है। इस उल्लाला भेद में हर दल में २६ मात्रा होती हैं और १३, १३ पर यति की व्यवस्था पाई जाती है। इस उल्लाला का उदाहरण उसने यों दिया है : घत्ता ६ १६९. प्राकृतपैंगलम् का घत्ता छंद सममात्रिक द्विपदी है। इसके प्रत्येक दल में ३१ मात्रा पाई जाती है, जिनकी गणव्यवस्था 'सात चतुर्मात्रिक गणतीन लघु (नगण, III) है। पूरे छंद में ६२ मात्राएँ पाई जाती हैं और यति क्रमशः १०८ और १३ मात्रा पर होती है। प्राकृतपैंगलम् में इस छंद के लक्षणपद्य तथा उदाहरणपद्य दोनों में १० वीं और १८ वीं मात्रा के स्थान पर प्रत्येक दल में तुकांत योजना पाई जाती है। यह आभ्यंतर तुक उदाहरण पद्य (१.१०१) के 'हणु- धणु' और 'अंकरु-भअंकर' में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। दामोदर के 'वाणीभूषण' का लक्षण बिलकुल प्राकृतपैगलम् के ही अनुसार हे और उदाहरणपद्य में वहाँ भी आभ्यंतर तुक की पूरी पाबंदी मिलती है। रे मन हरि भज विषय तजि, सजि सत संगति रैन दिनु । (१३, १३) काटत भव के फंद को, और न कोऊ राम बिनु || (१३, १३) मध्ययुग में पत्ता विशेष प्रसिद्ध छंद नहीं रहा है; गुजराती काव्यपरंपरा में इसका बहुत कम प्रयोग मिलता है और हिंदी कवियों में केवल केशवदास ही इसका प्रयोग करते हैं। वैसे छंदों का विवरण देने वाले प्रायः सभी मध्ययुगीन ग्रंथ 'पत्ता' का उल्लेख अवश्य करते हैं। केशव की 'छंदमाला' में घत्ता का लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है।* केशव भी इसमें आभ्यंतर तुक की व्यवस्था मानते हैं, पर कहीं कहीं इसके पालन का उल्लंघन भी दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए रामचंद्रिका के निम्न घत्ता के प्रथम दल में आभ्यंतर तुक नहीं पाई जाती। सरजू सरिता तट, नगर बसै नर, अवध नाम जसधाम धर । अघओघनिवासी सब पुरवासी, अमरलोक मानहुँ नगर | (रामचंद्रिका १.२३) इसके बाद पत्ता का लक्षण छंदविनोद (२.११), छंदार्णव (७.१६), छंदोमंजरी प्रायः सभी मध्ययुगीन हिंदी छंदोग्रन्थों में मिलता है। इन सभी के लक्षणों में कोई विशेष उल्लेखनीय बात नहीं मिलती। प्रायः सभी लेखक आभ्यंतर तुक का निबंधन करते देखे जाते हैं। १. छप्पय के प्रकरण में संदेशरासक का उदाहरण द्रष्टव्य है । २. पंद्रह कला विराम करि, तेरह बहुरि निहारि । पुनि पंद्रह तेरह द्विपद, अकलहि सु विचारि ॥ ३. तेरह तेरह कला पै होत जहाँ विश्राम | ताहि सबै कवि कहत हैं उल्लाला यह नाम ॥ ४. पिंगल कइ दिउ, छंद उकिट्ठउ, घत्त मत्त बासट्ठि करि । चमत्त सत्त गण, बे वि पाअ भण, तिणितिष्णि लहु अंत धरि ॥ प्रा० ० १.९१. ५. पढमं दह बीसामो बीए मत्ताई अट्ठाई । ७. छंदमाला २.२५. छंदमाला २.२७ दिसार पू. १२ ती तेरह विरई घत्ता मत्ताइँ बासट्ठि || प्रा० पैं० १.१००. ६. हृदि तावदनेकः, स्फुरति विवेकः, तपसि मनो नियतं भवति । यावत्रवहरिणी, नयनातरुणी स्मितसुभगं न विलोकयति ॥ Jain Education International वाणीभूषण १.६६. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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