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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ५८१ लक्षण की शैली भिन्न है। भिखारीदास के अनुसार "खंजा छन्द के प्रथम दल में अंत में दो गुरु (४१ + 55 =४५ मात्रा) जोड़कर द्वितीय दल में गाथा छन्द का उत्तरार्ध रखने से माला छन्द होता है।"१ प्रा० पैं० की परम्परा के अनुसार ही भिखारीदास ने भी इसे केवल 'माला' कहा है, 'मालागाथ' या अन्य किसी नाम से नहीं पुकारा । साथ ही इस छद का भिखारीदास ने जो उदाहरण दिया है, वह संभवतः भिखारीदास का अपना ही बनाया है, जहाँ 'मुद्रालंकार' की स्थिति इसकी पुष्टि करती है और जो हिन्दी कवियों में इस छन्द के उपेक्षित होने संकेत करती है। उल्लाला १६८. उल्लाला सममात्रिक द्विपदी छंद है, जिसका उल्लेख प्राकृतपैंगलम् में स्वतंत्र रूप से न किया जाकर 'रोला + उल्लाला' के मिश्रण से बने छप्पय छन्द के संबंध में किया गया है। प्राकृतपैंगलम् के अनुसार इस छन्द के दोनों दलों में सब कुल ५६ (२८ x २) मात्रा होती हैं और प्रत्येक चरण की मात्रिक गणव्यवस्था ४, ४, ४, ३, ६, ४, ३ है ।१ प्राकृतपैंगलम् में इसकी यतिव्यवस्था का कोई संकेत नहीं मिलता, पर यहाँ १५, १३ पर यति पाई जाती है। इस छन्द का स्पष्ट उल्लेख हेमचन्द्र के 'छन्दोनुशासन' और अज्ञात लेखक के कविदर्पण में मिलता है । हेमचन्द्र ने दो द्विपदियों का जिक्र किया है, जिन्हें वे क्रमशः 'कुंकुम' तथा 'कर्पूर' कहते हैं । 'कुंकुम' द्विपदी में २७ मात्रा (१५, १२ यति) और 'कर्पूर' में २८ मात्रा (१५, १३ यति) पाई जाती है । प्राकृतपैंगलम् और रत्नशेखर के 'छन्दःकोश'४ में 'कर्पूर' वाली द्विपदी ही 'उल्लाला' कही गई है। हेमचन्द्र ने बताया है कि ये दोनों द्विपदियाँ मागधों (भट्ट कवियों) के यहाँ 'उल्लालक' कहलाती है। (एतावुल्लालको मागधानाम् ।) हेमचंद्र के अनुसार कर्पूर (उल्लाला) की गणव्यवस्था २ x २, ४, २४२, ।, २४२, ४, २४२, ॥ है। कुंकुम में अंत में केवल 'दो लघु' (1) होते है, बाकी गणव्यवस्था ठीक यही है ।३ उदाहरण सुरकुंभिकुंभसिंदूरभरु, हरिदिसिकुंकुममंडणु । (१५, १२) पसइच्छि पिच्छि जोइक्खु जिंव, बालायवु तमखंडणु ॥ (१५, १२) (हे विशालाक्षि देखो, देवगज के कुंभस्थल का सिंदूर, इन्द्रदिशा (पूर्वदिशा) का कुंकुममंडन तमःखंडन यह बालातप मानों ज्योतिष्क है।) आयंबलोललोयमजुयल, उल्लालय जीवियमयण । (१५, १३) कप्पूरधवल सोहइ सलिल, केलिकाल कामिणिवयण ।। (१५, १३) (आताम्र लोल लोचनयुगल वाला, गीले वालों से युक्त, कर्पूर सा धवल, मदन को उद्दीप्त (जीवित) करता कामिनीवदन सलिलकेलि (जलक्रीडा) के समय सुशोभित हो रहा है ।) स्पष्ट है कि अपभ्रंश छन्दःशास्त्रियों के 'कुंकुम' और 'कर्पूर' को ही राजाश्रित भट्ट कवि 'उल्लाल' कहते थे, और प्राकृतपैंगलम् तथा मध्ययुगीन हिन्दी काव्यपरंपरा में यही नाम प्रचलित हैं। याकोबी ने 'भविसत्तकहा' की भूमिका में इस छंद का संकेत किया है। भविसत्तकहा में यह कई स्थानों पर 'घत्ता' के रूप में प्रयुक्त हुआ है । भविसत्तकहा में प्रयुक्त 'कर्पूर' (उल्लाल) की गणव्यवस्था यों है :- अ: ३४४ +३ १. खंजा के दल अंत पर द्वै गुरु दै सुखकंद । आगे गाहा अर्ध करि, जानहि माला छंद ॥ छंदार्णव ८.१६. २. दे० छन्दार्णव ८.१७ ३. दाचदालदाचदालि कर्पूरो णैः ॥ द्वौ चतुर्मात्रो द्वौ द्विमात्रौ लघुझे द्विमात्रौ चतुमात्रो द्वौ द्विमात्रौ लघुत्रयं च कर्पूरः । णैरिति पञ्चदशभिर्मात्राभिर्यतिः । सोन्त्यलोनः कुंकुमः ।। स एव कर्पूरः अन्त्यलघुना ऊनः कुंकुमः । छन्दःकोश १२ तथा २९. ५. कविदर्पण २-२-३. ६. एतावुल्लालको इति बन्दीनां भाषासु प्रसिद्धावित्यर्थाज्झेयम् । - कविदर्पण वृत्ति २.२-३. ७. भविसत्तकहाः घत्ता संख्या १६-२०, २२-२७, २९-६२, ६४-६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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