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________________ प्राकृतपैंगलम् २२ इसी तरह दो दो चतुर्मात्रिकों के बढ़ाने से बने गाथा भेद का संकेत करती है । यहाँ इतना संकेत कर दिया जाय कि इन सभी गणवृद्धिजनित गाथाभेदों में उत्तरार्ध अपरिवर्तित अर्थात् २७ मात्रा का ही रहता है। हेमचंद्र ने 'छन्दोनुशासन' में 'मालागाथ' का यह उदाहरण दिया है : ५८० 'इह माला गाहाण व वयंस पेच्छसु नवंबुवाहाण गयणविउलसरवरम्मि विमुक्कघोरघोसाण विज्जुजोहाबिहीसणाण बहलवारिनिचयपमच्चिराण अइदीहगत्ताण । हद्धी गसदि मयंक खेलंतं रायहंसं व ॥ (छन्दोनुशासन ४.१९ पद्य) (इह माला ग्राहाणां इव वयस्य प्रेक्षस्व नवांबुवाहानां गगनविपुलसरोवरे विमुक्तघोरघोषाणां विद्युज्जिह्वाबिभीषणानां बहलवारिनिचयप्रमत्तानां अतिदीर्घगात्राणाम् । हा धिक् ग्रसति मृगांकं खेलंतं राजहंसं इव II) + इस छन्द में 'हद्धी'... राजहंसं व' इस छन्द का उत्तर दल है, जो गाथा का अपरिवर्तित उत्तरार्ध है । पूर्वार्ध में पादांत गुरु के पूर्व २३ चतुर्मात्रिक गण पाये जाते हैं; जब कि मूल गाथा में पादांत गुरु के पूर्व केवल ७ चतुर्मात्रिक गण ही होते हैं (गाथापूर्वार्ध = ७ चतुर्मात्रिक १ गुरु = ३० मात्रा) । अतः यहाँ साधारण गाथा के पूर्वार्ध में १६ चतुर्मात्रिक गण ज्यादा जोड़े गये हैं तथा इस 'मालागाथ' के पूर्वार्ध में कुल २३ x ४ + २ = १४ मात्रा पाई जाती हैं । इस व्यवस्था के अनुसार प्राकृतपैंगलम् वाली 'माला' की गणव्यवस्था मानने पर वहाँ पूर्वार्ध में हेमचन्द्र वाली दो दो चतुर्मात्रिक गणों वाली वृद्धि का नियम पूरी तरह लागू नहीं होता; क्योंकि हेमचन्द्र के मतानुसार गाथापूर्वार्ध में ८, ८ मात्रा की क्रमशः अभिवृद्धि होने पर तत्तत् गाथ उद्गाथ, विगाथ आदि भेद हो पाते हैं । प्रा० पैं० के माला छन्द में पूर्वार्ध की ४५ मात्रा इस क्रम में कही व्यवस्थित नहीं हो पाती। ऐसा जान पड़ता है, शास्त्रीय दृष्टि से हेमचन्द्र के मतानुसार, प्रा० पैं० की 'माला' में एक लघु अक्षर (१ मात्रा) और बढ़ा देने पर पूर्वार्ध में ४६ मात्रा वाला 'उद्गाथ' छन्द हो जायगा। 'माला' विशेषण विशिष्ट दो अन्य छन्द भी हेमचन्द्र के 'गलितक प्रकरण' में देखे जाते हैं :- 'मालागलितक' तथा 'मालागलिता' । इनकी गणव्यवस्था यों है : मालागलितक' ६+१०x४ (चतुर्मात्रिक); (सम गणों में जगण या लघुचतुष्टय, किंतु विषमगणों में जगणनिषेध, पादांत में यमक) । (४६ मात्रा, चतुष्पात्) । मालागलिता. ४+५+२x४+५+२+x (३३ मात्रा, चतुष्पात्) । इन दोनों का हमारी 'माला' से कोई खास संबंध नहीं है, किंतु यह 'माला' विशेषण इस बात का संकेत करता है कि 'माला' कोई खास छन्द न होकर किसी छन्द (प्रायः गाथा या गलितक) का वह भेद होता था, जिसमें चतुर्मात्रिक गणों की 'माला' (लड़ी) पाई जाती हो । यह 'माला' विशेषण ठीक उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जो अलंकारशास्त्र के 'मालोपमा', 'मालारूपक', 'मालादीपक' आदि अलंकारों में है। आगे चलकर कवि इस प्रकार के छन्दों को 'मालागाथ' जैसे पूरे नाम से न पुकार कर नामैकदेशग्रहण के द्वारा केवल 'माला' कहने लगे हों । इतना ही नहीं संभवतः उन सभी गाथाभेदों को जिनके प्रथमार्ध में नियत ७ चतुष्कल तथा एक गुरु ज्यादा चतुष्कल व्यवस्था पाई जाती हो, सामान्यतः 'माला' नाम दे दिया गया यद्यपि हेमचंद्र ने उन्हें विभिन्न नाम दिये हैं, यह हम देख चुके हैं। भट्ट कवियों में इन गाथा भेदों में से केवल एक ही तरह का भेद अधिक प्रचलित रहा होगा; प्रा० पैं० ने इसी पूर्वार्ध में नौ सर्वलघु चतुष्कल + रगण + दो गुरु' (४५ मात्रा) वाले गाथा भेद का संकेत किया है, तथा इसे भट्ट परम्परा में प्रचलित केवल 'माला' नाम से ही पुकारा है। संभवतः माला छंद का चलन आदिकालीन हिन्दी कवियों में ही बहुत कम रहा है । मध्यकालीन हिन्दी कवियों में किसी कवि ने इसका प्रयोग नहीं किया है। वैसे भिखारीदास ने मात्राजाति छन्दों में गाथा - वर्ग के साथ खंजा, शिष्या, चूड़ामणि आदि की तरह इसका भी संकेत किया है। भिखारीदास की 'माला' का लक्षण प्रा० पैं० से मिलता है, यद्यपि १. षण्मात्राद्गणात्परे दश चगणा न विषमे जः समे जो लघुचतुष्टयं वा यमितेौ मालाया गलितकम् । - छन्दोनुशासन ४.२५ सूत्र की वृत्ति । २. चतुर्मात्रः पञ्चमात्रश्चतुर्मात्रद्वयं पञ्चमात्रः चतुर्मात्रद्वयं लघुगुरु च मालागलिता । - वही, सूत्र ४.३० की वृत्ति । For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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