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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ५७९ शुद्ध मात्रावृत्त इसलिये नहीं माना है कि इसमें अक्षरों की निश्चितलघु गुरु व्यवस्था का संकेत पाया जाता है। भिखारीदास के छन्दार्णव में भी यह छंद है। भिखारीदास का लक्षण प्रा० पैं० के लक्षण से थोड़ा मिलता है। भिखारीदास के मतानुसार 'शिष्या' के प्रथम दल में २४ लघु के बाद जगण व्यवस्था है। इस तरह भिखारीदास की 'शिष्या' में प्रथम दल में २८ मात्रा और द्वितीय दल में ३६ मात्रा हैं, जब कि प्रा० पैं० की 'शिखा' में द्वितीय दल में ३२ मात्रा (२८ लघु + जगण) ही हैं। इसकी पुष्टि भिखारीदास के उदाहरण तक से होती है, जहाँ उत्तरदल में ३६ मात्रा ही हैं ।२ भिखारीदास ने भी 'शिष्या' के अन्त में जगण मानकर इसे लघुपादांत छन्द ही माना है, गदाधर की तरह गुरुपादांत नहीं । वहाँ सात गुरु वाला (5555555) शिष्या (सिस्या) नामक अन्य छंद भी मिलता है, जो इस 'शिखा' छंद से सर्वथा भिन्न है तथा वर्णिक छन्द जान पड़ता है, यद्यपि भिखारीदास ने इसका संकेत १४ मात्रा वाले मात्रिक वृत्तों के प्रकरण में किया है। गदाधर ने भी 'शिखा' छन्द का उल्लेख किया है, साथ ही 'शिख्या' नामक एक दूसरे छन्द का भी जिक्र किया है। शिखा विषम मात्रिक द्विपदी छन्द है, जिसके प्रथम दल में (२८ अक्षर, ३० मात्रा) तथा द्वितीय दल में (३० अक्षर, ३२ मात्रा) होती हैं; जब कि 'शिखा' छंद अट्ठाइस मात्रा वाला सम चतुष्पात् छंद है । गदाधर का "शिखा' छन्द प्रा० पैं० के 'शिखा' छन्द की तरह विषम द्विपदी होने पर भी कुछ भिन्न है ।गदाधर की 'शिखा' की गण व्यवस्था यों है :-- प्रथम दल २७ लघु अक्षर + १ गुरु (या ६x...~ + ~~~~-; ३० मात्रा) द्वितीय दल ३० लघु + १ गुरु (या ७ x०.०० + 00 -; ३२ मात्रा) स्पष्ट है, गदाधर की 'शिखा' की नींव प्रा० पैं० वाला शिखा छंद ही है, दोनों में यही भेद है कि प्रथम दल में प्रा० पैं० के 'जगण' को बदल कर यहाँ गुर्वंत षट्कल की व्यवस्था कर २८ की जगह ३० मात्रा कर दी गई है तथा इसी तरह द्वितीय दल में भी 'जगण' को हटाकर उसके स्थान गुर्वत सगण (-~-) की योजना की गई है। प्रा० पैं० के शिखा छंद के दोनों दलों में अंत में लघु अक्षर पाया जाता है, जब कि गदाधर के 'शिखा छंद' में दोनों दल गुर्वंत हो गये हैं। संभवतः प्रा० ० के संग्रह के वाद कवियों में शिखा का यह दूसरा रूप भी चल पड़ा हो । माला छंद ६ १६७. प्रा० पैं० का माला छंद भी विषम द्विपदी है। इस छंद की गणव्यवस्था निम्न है : प्रथमदल, x०.०० + रगण (--) + कर्ण (--).४८ मात्रा; द्वितीय दल, गाथा छंद का उत्तरार्ध (१२ + १५ = २७ मात्रा) इस तरह का छंद बीज रूप में हेमचन्द्र में अवश्य मिलता है। गाथाप्रकरण में हेमचंद्र ने बताया है कि गाथा छंद के पूर्वार्ध में अन्त्य गुरु के पूर्व क्रमशः २, ४, ६, ८, १०, १२, १४ चतुर्मात्रिक गणों के बढ़ाने से क्रमशः गाथ, उद्गाथ, विगाथ, अवगाथ, संगाथ, उपगाथ तथा गाथिनी भेद पाये जाते हैं। हेमचंद्र के ये उद्गाथ, विगाथ, गाथिनी छंद परंपरागत उद्गाथा, विगाथा तथा गाहिनी से सर्वथा भिन्न है, यह इनकी मात्रासंख्या से स्पष्ट हो जायगा । इस प्रकरण को समाप्त करते समय हेमचंद्र ने एक अन्य गाथाभेद 'मालागाथ' का जिक्र किया है, जो गाथिनी में अनेक संख्यक यथेष्ट चतुर्मात्रिक गणों के बढ़ाने से बनता है। इस तरह 'मालागाथ' वस्तुतः एक सामान्य संज्ञा है, जो गाथा छन्द के पूर्वार्ध में १६, १८, २०, १. पहिले दल मैं चौबिसै लहु पर जगनहि देहु । पुनि बत्तिस पर जगनु दै, सिष्या गति सिखि लेहु ॥ - छन्दार्णव ८.१८ ॥ २. दे० छन्दार्णव ८.९९ । ३. दे० छन्दार्णव ५.१०६ । ४. दे० छन्दोमंजरी पृ० ७८ तथा पृ० ७९ या विधि मात्रा तीस हैं पूरब दल मैं देखि । उत्तर दल बत्तीस हैं शिखा छंद सो लेखि ॥ - वही पृ० ७८, ७९ ६. चयोर्गाथः । (४.११) गाथैव पूर्वाद्धेन्त्यगात्प्राक् चगणद्वयस्य वृद्धौ गाथः । क्रमवृद्धयोद्वयवसमुपात् । (४.१२) । गाथात्परं क्रमेण चगणद्वयवृद्धया उद्-वि-अव-सम्-उपपरो गाथो भवति उद्गाथविगाथावगाथसंगाथोपगाथा इत्यर्थ : । गाथिनी । (४.१३) । उपगाथाच्चगणद्वयवृद्धया गाथिनी । ७. यथेष्टं मालागाथः । (४.१४) गाथिन्यां परं यथेष्टं चगणद्वयवृद्धया मालागाथः । - वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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