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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
$ १६३. प्राकृतपैंगलम् में ४५ मात्राछन्दों का लक्षणोदाहरण निबद्ध किया गया है, जिनमें ७ शुद्ध प्राकृत छन्द हैं, शेष ३८ अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी काव्यपरम्परा के छन्द हैं। प्राकृत वर्ग के सातों छंद मूलतः गाथा के ही प्ररोह हैं तथा सबी द्विपदी छन्द हैं, जिन्हें बाद में संस्कृत पंडितों ने तथा अनेक प्राकृत- हिंदी छन्दः शास्त्रियों ने भी चतुष्पात् मान लिया है। अपभ्रंश छन्दों को सुविधा की दृष्टि से इन निम्न वर्गों में बाँटा जाता है।
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(१) द्विपदी छंद; (२) समचतुष्पदी; (३) सम षट्पदी; (४) अर्धसम चतुष्पदी; (५) अर्धसम षट्पदी (६) अर्धसम द्वादशपदी; (७) संकीर्ण या मिश्रित छन्द; (८) प्रगाथिका छन्द । प्राकृतपैंगलम् में मूलतः चार द्विपदी छंद ही पाये जाते हैं । द्विपदी (१.१५२) खंजा (१.१५८) शिखा (१.१६१), तता माला (१.१६४) । पिछले तीनों विशेष प्रसिद्ध नहीं है तथा इन्हें शुद्ध अपभ्रंश छन्द नहीं माना जा सकता, इसका संकेत हम यथावसर करेंगे। 'उल्लाल' या 'उल्लाला ' अन्य छन्द है, जिसे द्विपदी वर्ग में रखा जा सकता है। इस छन्द का विवरण स्वतंत्र रूप में प्रा० पैं० में नहीं मिलता, अपितु छप्पय के साथ ही इसे लिया गया है। फिर भी हम यहाँ उल्लाला पर द्विपदीप्रकरण में स्वतन्त्र विचार करेंगे । घत्ता, घत्तानंद और झूलणा को डा० वेलणर द्विपदी छंद न मानकर अर्धसमा षट्पदी मानते हैं, किन्तु हमें उन्हें द्विपदी मानना ही अभीष्ट है, इसका संकेत हम यथावसर करेंगे। समचतुष्पदी छंदों में मधुभार जैसे छोटे छंद से लेकर महनगृह जैसे बड़े छंद आते हैं। प्राकृतपैंगलम् में इनकी संख्या २२ है । इनमें मरहट्ठा आदि नौ छंदों को डा० वेलणकर चतुष्पदी नहीं मानते । वे इनमें से जलहरण, त्रिभंगी और मदनगृह को षोडशपदी मानते हैं, और शेष ६ छंदों का द्वादशपदी । प्राकृतपैंगलम् और बाद में मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा भी इन छंदों को चतुष्पदी ही मानते हैं; और हम भी इन्हें चतुष्पदी ही मानना समीचीन समझते हैं, जिसका संकेत हम यथावसर तत्तत् छंद के संबंध में करेंगे। प्राकृतपैंगलम् में केवल एक ही समषट्पदी छंद है - रसिका । अर्धसम चतुष्पदियों में यहाँ चौबोला, दोहा, सोरठा और चुलिआला का विवरण दिया गया है और मिश्रित छंदों में रड्डा, कुंडलिया और छप्पय का प्राकृतपैंगलम् के संग्राहक ने आरंभ में दोहा लिया है, बाद में कोई निश्चित क्रम नहीं अपनाया गया है। हमने द्विपदी, समचतुष्पदी, समषट्पदी, अर्धसम चतुष्पदी और मिश्रित छंद के क्रम से अनुशीलन उपस्थित किया है, अतः हमारा क्रम प्राकृतपैंगलम् के क्रम से भिन्न पड़ेगा । द्विपदी छंद
$ १६४. द्विपदी :- अपभ्रंश में 'द्विपदी' शब्द छंदों की सामान्य संज्ञा का संकेत करता है । यह कोई निश्चित लक्षण का खास छंद न होकर उन समस्त छंदों के लिये प्रयुक्त देखा जाता है, जिनके दोनों पादों में समान मात्रायें (कितनी ही ) हों, तथा पादों में 'क- ख' क्रम से तुक (अन्त्यानुप्रास) पायी जाय। कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' तथा हर्ष की 'रत्नावली' नाटिका में द्विपदीखण्ड का प्रयोग किया गया है जो समममात्रिक द्विपदियाँ है । 'विक्रमोर्वशीय' के अपभ्रंश छंदों में द्विपदियाँ देखने को मिलती हैं। स्वयंभू तथा हेमचंद्र ने अनेक द्विपदियों का संकेत किया है, जिनमें चार मात्रा वाली विजया जैसी छोटी द्विपदियों से लेकर ३० मात्रा तक की अनेक द्विपदियों की गणना है, तथा आगे चलकर ३० मात्रा से अधिक समद्विपदियों का भी उल्लेख किया गया है। इस तरह दोनों आचार्यों ने कुल मिलाकर ७६ द्विपदी भादों का विवरण दिया है । डा० वेलणकरने प्रायः सभी द्विपदियों की समान विशेषतायें ये मानी हैं :
(१) द्विपदी का प्रत्येक चरण प्रायः चतुर्मात्रिक गणों से बना होता है, कभी कभी द्विमात्रिक या षण्मात्रिक गण का प्रयोग भी हो सकता है ।
(२) त्रिमात्रिक अथवा पंचमात्रिक गणों का प्रयोग केवल उन्हीं द्विपदियों में होता है, जिनमें विषमसंख्यक मात्रायें
१.
H. D. Velankar : Prakrit and Apabhramsa Metres (Classed List and Alphabetical Index) (J. Bom. R.A.S. Vol. 22, 1946, p. 15).
२. Apabhramsa Metres * 26.
३. दे० विक्रमोर्वसीय ४.२, ४.२९,
४.
Velankar : Apabhramsa Metres II. p. 47. (J. B. Univ. 1936)
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