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________________ ५७६ प्राकृतपैंगलम् प्रत्येक चरण में होती हैं, तथा यहाँ भी यह मात्रिक गण प्रायः पादांत में रखा जाता है। (३) प्रत्येक चरण में द्वितीय यति प्रथम यति के ८ मात्रा वाद पाई जाती है। (४) प्रथम यति १० वी, १२ वी, १४ वीं, या १६ वी मात्रा के बीच कहीं न कहीं स्थान बदलती रहती है। (५) जहाँ यति का खास संकेत नहीं किया जाता, यह प्रायः ८ वी तथा १६ वी मात्रा के बाद पड़ती है। (६) द्विपदी की संज्ञा प्रथम यति तथा द्वितीय यति के स्थानभेद अथवा मूल चतुर्मात्रिक गणों के स्थान पर द्विमात्रिक या षण्मात्रिक गण के परिवर्तन से बदल जाती है। उक्त सभी विशेषतायें इस बात का संकेत करती हैं कि अधिकांश द्विपदियाँ मूलतः गेय छन्द के रूप में निबद्ध की जाती रही हैं तथा मृदंगादि ताल-वाद्यों के साथ गाई जाती रही हैं। हेमचंद्र ने द्विपदी का संकेत खञ्जक प्रकरण में किया है तथा मात्रिकगण तथा यति भेद से ही उसके विविध भेद रचिता, आरनाल, कामलेखा आदि का उल्लेख किया है। प्रा० पैं० में केवल एक ही तरह की द्विपदी का जिक्र किया गया है। इस द्विपदी की गणव्यवस्था निम्न हैं : ६ + ५ x ४ + 5. (षट्कल. पाँच चतुष्कल, गुरु)। इस प्रकार प्रा० पैं० की द्विपदी २८ मात्रावाली द्विपदी है। संदेशरासक में भी द्विपदी का ठीक यही भेद मिलता है, इस भेद का संकेत हेमचंद्र में भी है । हेमचंद्र के अनुसार इसकी गण-व्यवस्था यों है : ६+02+४+४+४+ -४४० + - अर्थात् द्वितीय तथा षष्ठ मात्रिकगण में चतुर्लघु (~~~५) अथवा जगण ( .-") का विधान जरूरी है। भायाणी जीने बताया है कि २८ मात्रावाली इस द्विपदी में प्रथम गण प्राय: - . - पाया जाता है, तथा द्वितीय-षष्ठ गणों में प्राय: जगण (--) पाया जाता है। अन्य गणों में जगण निषिद्ध है। १६ वी मात्रा के बाद यति पाई जाती है। अल्सदोर्फ ने इसी यति के आधार पर द्विपदी की गणव्यवस्था ६ + ४.४० +६/६+ -..-मानली है, जो त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि ऐसा मानने पर १४-१५ वी तथा १८-१९ वी मात्राओं के स्थान पर गुर्वक्षर की व्यवस्था हो जायगी, जो परंपरागत मत के अनुसार अमान्य है। अल्सदोर्फ ने तीन चतुष्कलों के स्थान पर मध्य में दो षट्कलों की व्यवस्था कर परंपरागत मत की इस गुर्वक्षर निषेधाज्ञा को नहीं माना है। प्रा० पैं० के द्विपदी उदाहरण (१.१५५) में गण व्यवस्था परंपरागत मतानुसार ही है। ६ +000 +४+४+४+ ---- यहाँ द्वितीय-षष्ठ गणों में नियत रूप से जगण (र, कंपि; °ण, झंपि) पाया जाता है। प्रथम षण्मात्रिक गण प्रथमार्ध में --~-- (दाणव दे०) है, द्वितीयार्ध में-~~-- (हअगअपा) । द्विपदी छन्द द्विपात् है या चतुष्पात्, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। प्रा० पैं० (१.१५३) में इसका चतुष्पात् रूप मिलता है, किंतु उदाहरण (१.१५५) में दो चरण ही हैं । प्रा० पैं० के टीकाकार वंशीधर ने इस प्रश्न को उठाकर विविध मत दिये हैं। हमें इनमें अंतिम मत ही मान्य है, जो इसे द्विपदी छंद ही मानता है तथा लक्षण को दो द्विपदियों में निबद्ध समझता है । वेलणकर ने इसे चतुष्पदी ही माना है। संदेशरासक की द्विपदी (१२० वाँ छंद) तथा प्रा० पैं० की द्विपदियों में बी क-ख की ही तुक पाई जाती है, अतः जहाँ दो युग्मो में एक-साथ क-ख, क-ख की तुक पाई जाती है, वहाँ एक चतुष्पदी न मानकर दो द्विपदियौँ मानना ही ठीक होगा। संदेशरासक के १२० वें छन्द में भी वस्तुतः दो द्विपदियाँ ही जान पड़ती हैं। ऐसा जान पड़ता है, द्विपदी के मूलतः द्विपात् छंद होने पर भी मुक्तक काव्यों में इसका १. हेमचन्द्रः छन्दोनुशासन ४.५६ तथा परवर्ती । २. षश्चगौ द्वितीयषष्ठौ जो लीर्वा द्विपदी । - वही ४.५६ । ३. इदं च वृत्तं द्विपादमेव, न चतुष्पादं, उदाहरणानुरोधादिति केचित् । अन्ये तु यदीदं द्विपादमेव, तर्हि लक्षणं पादचतुष्टयेन कथं कृतमिति इदं चतुष्पादमेव.... | परे तु लक्षणं वृत्तद्वयेन कृतमितीदमुदाहरणानुरोधाद् द्विपादमित्याहुः । - वंशीधरी टीका परि० ३ पृ० ५७५ ४. Apabhramsa Metres II * 43 p. 50. ५. दे० संदेशरासक पृ० ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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