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________________ ५७४ प्राकृतपैंगलम् अपभ्रंश कवियों ने इस छंद का प्रयोग बहुत कम किया है। संदेशराशक में ११९ वें छंद को 'खंधय' कहा गया है, किंतु इस छंद में प्रत्येक अर्धाली में ३२ मात्रायें नहीं पाई जाती । संदेशरासक का तथाकथित 'खंधय' यह है : मह हिययं रयणनिही, महियं गुरुमंदरेण तं णिच्चं । (३० =१२, १८). उम्मूलियं असेसं, सुहरयणं कडिढयं च तुह पेम्मे ॥ (३० =१२, १८) (हे प्रिय, मेरा हृदय (वह) रत्ननिधि (समुद्र) है, जिसे तुम्हारे प्रेमरूपी आत्यधिक गुरु मंदर पर्वत ने प्रतिदिन (नित्य) मथा है और उसे नि:शेष उन्मूलित कर सुख रूपी रत्न को निकाल लिया है। भाव है, तुम्हारे गुरुप्रेमजनित विरह ने मेरे हृदय को सुखरहित बना दिया है।) इस छन्द को अद्दहमाण ने स्वयं ही 'खन्धय' कहा है। श्री भायाणी ने बताया है कि उक्त छन्द में प्रत्येक अर्धाली में ३० मात्रायें ही पाई जाती हैं तथा यह 'उद्गाथा' या 'गीति' छन्द है। किन्तु वहीं वे इस बात का संकेत करते हैं कि प्रत्येक अर्धाली में (१२+१८) मात्रा वाले गाथा-भेद को भी स्कंधक कहने के कुछ प्रमाण मिलते हैं। हरिभद्रसूरि के 'अर्धाख्यान' का ४-९२ छन्द वहीं 'खंधओ' कहा गया है, किंतु वहाँ प्रत्येक अर्धाली में २९ मात्रायें ही है। संभवतः 'धूर्ताख्यान' के उक्त छन्द में गाथा के नियम की अवहेलना की गई है, क्योंकि वहाँ षष्ठ गण में दोनों दलों में 'जगण' नहीं पाया जाता । यदि किसी तरह 'जगण' का विधान हो जाता तो वहाँ प्रत्येक दल में ३० मात्रा हो जाती । इससे ऐसा जान पड़ता है कि संभवतः लोककवि ५७ मात्रा से अधिक संख्या वाले गाथा प्ररोहों को 'खंधय' की सामान्य संज्ञा से विभूषित करते हों। हिंदी कवियों के लिये 'खंधा' या 'खंधक' छन्द प्राय: उपेक्षित रहा है। संभवतः किसी कवि ने इसका प्रयोग नहीं किया है। वैसे छन्दः-शास्त्रियों में भिखारीदास, श्रीधर कवि तथा गदाधर ने इसका जिक्र किया है। भिखारीदास ने इस छन्द का कोई खास उदाहरण न देकर इतना संकेत कर दिया है कि यह छन्द हिंदी में अप्रचलित है। भिखारीदास (८.३) ने इसका लक्षण (१२, २० : १२, २० मात्रा) ही माना है; किंतु श्रीधर ने प्राकृतपैंगलम् के ही लक्षण का उलथा करते हुए इसकी प्रत्येक अर्धाली में आठ चतुर्मात्रिक गणों की व्यवस्था मानी है । गदाधर का लक्षण सर्वथा भिन्न है । उसने खंधा को समचतुष्पात् छंद बना डाला है तथा (१६, १६ : १६, १६) मात्रा का विधान किया है, जो इसे पद्धडिया जैसे छंदों के साथ रखकर इसके मूलरूप को ही विकृत कर डालता है। वस्तुतः महाकवि पद्माकर के पौत्र, गदाधर के समय तक 'खंधा' छन्द की धारणा में फर्क पड़ गया है । इस लक्षणोदाहरण से यह स्पष्ट हो जायगा । 'चरन चरन प्रति मत्त जहँ सोरह सुखद प्रमान । जानहु खन्धा छन्द सो पिंगल करत बखान ।। उदाहरण यथा, अब काहे को सुनौ नाथ जू, कुबजा कीन्ह जाइ घरवारी । (१६, १६ =३२) हम जानी अब नेह बिसारी, कौन चूक हुइ गई हमारी ॥ (१६, १६ =३२) (छन्दोमंजरी : प्रवर्तकछंद प्रकरण १७-१८, पृ. ७९) खंधा छन्द का यह रूपपरिवर्तन परिवर्ती हिंदी कवियों के एतद्विषयक अज्ञान का ही संकेत करता है। १. भणइ कहिय तह पियह इक्कु खंधउ हुवइ । - संदेशरासक ११८ द, पृ. ४९ २. एक जगन कुलवंती, दोइ जगन्न गिहिनी सु है सुनि बंधो । (१२, २० = ३२) जगनबिहीनारंडा, बेस्या गावौ बहु जगन्न को खंधो ॥ (१२.२० =३२) (छन्दार्णव ८.७) ३. आठ गना चौमत्ता के दूसरे हुता सम जानो । (१२, २० =३२) सो षंधा उर आनोपिंगल कविराज सुद्ध करि यौं ठानो । (१२, २० =३२) - श्रीधरकृत छंदविनोद २.६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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