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प्राकृत छंदः परम्परा का दाय
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यहाँ यति १२वीं मात्रा या तृतीय चतुष्कल पर नहीं पड़ कर प्रथम दल में 'शब्द' के बाद १३वीं मात्रा पर तथा द्वितीय दल में 'जातिनी' के बाद १५वीं मात्रा पर पड़ती है। यह मत 'छन्दः शास्त्र', उसके टीकाकार हलायुध तथा हेमचन्द्र के मत से विरुद्ध है, जो विपुला का लक्षण केवल नियत यत्यभाव ही मानते हैं। संभवतः बाद के आचार्यों में जहाँ कहीं शब्द की समाप्ति हो वहीं यति मानना विपुला का लक्षण बन गया है ।
गाथा (आर्या) के विविध प्ररोह ही गाहू (उपगीति), विगाथा, उगाथा (गीति), गाधिनी (गाहिनी) तथा सिंहिनी हैं।
गाहू : २७ मात्रा दोनों दलों में (१२, १५ : १२, १५) = ५४ मात्रा
विगाथा : गाथा का उलटा, २७ : ३० (१२, १५ : १२ : १८) = ५७ मात्रा उद्गाथा : ३० मात्रा दनों दलों में (१२, १८ : १२, १८). = ६० मात्रा | गाथिनी : पूर्व दल में ३० मात्रा, उत्तर दल में ३२ (१२, १८ : सिंहिनी : गाथिनी का उलटा ३२, ३० (१२, २० : १२, १८)
१२, २०). = ६२ मात्रा. = ६२ मात्रा.
स्कंधक छंद भी मूलतः गाथा का ही भेद माना गया है, जहाँ प्रत्येक दल में ३२, ३२ मात्रा पाई जाती है। गाथिनी या सिंहिनी के दोनों दलों में समान मात्रायें (३२३२ मात्रायें कर देने पर स्कंधक छंद हो जाता है। नंदिताढ्य ने 'गाथालक्षण' में, जो सबसे पुराना प्राकृत छंदशास्त्रीय ग्रंथ हैं, 'सिंहिनी' के अलावा प्रायः इन सभी गाथा - प्ररोहों का संकेत किया है । विरहाङ्क के 'वृत्तजातिसमुच्चय' में गाथा, स्कंधक, गीति तथा उपगीति का ही उल्लेख है, अन्य छंदों का नहीं; तथा गाहू और उद्गाथा को वहीं संस्कृत पंडितों की संज्ञा 'उपगीति' तथा 'गीति' के नाम से ही पुकारा गया है। जैसे 'गीति' तथा 'उपगीति' के लक्षण वहाँ यो दिये है, जो श्रुतबोध के लक्षणों का ही उल्था सा जान पड़ते हैं।
गाहापुव्वद्धं विअ जीअ सुअणु पुव्वपच्छिमद्धाई ।
सा पिंगलेण गीइति दाविआ सव्वछन्दवित्ताणमू ।। ( ४.१३)
जहाँ पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्ध दोनों गाथा के पूर्वार्ध की तरह ही हो, उसे पिंगल ने समस्त छंदों के जानने वाले लोगों के समक्ष गीति प्रदर्शित किया है ।)
(हे सुतनु
गाहापच्छद्ध विय पुव्वद्धं पच्छिमद्धं च ।
जीसे सा सवगीई तेणं चिअ लक्खणे भणिआ ।। (४.१४)
(गाथा के पाक्षिमार्थ की तरह जहाँ पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्धं दोनों हो उसे उन्हीं (पिंगल नाग) ने लक्षण में उपगीति कहा है ।)
प्रा० पैं० के संग्राहक ने प्राकृतापभ्रंश छन्दः परम्परा के अनुसार गाथा के इन छंदों को प्राकृत संज्ञा ही दी है। स्कन्धक (खंधक)
६ १६२. मूलतः स्कंधक छंद भी गाथा का ही प्ररोह है। इश छंद की प्रत्येक अर्धाली में ३२ मात्रा तथा समग्र छंद में ६४ मात्रा होती है । नंदियड्ड ने इसके लक्षण में ६४ मात्रा का संकेत कर निम्न उदाहरण दिया है।
:
नमह भुयइंदभासुर, वियडफडाडोयखलियविसह रसलिलं । ( १२, २०)
पहयमुइदामुहलय णागिणिगिज्जंतमंगलं पासजिणं ॥ (१२, २०) (गाथालक्षण ७१ )
(भुजगेन्द्र ( शेषनाग ) के भासुर विकट, फटाटोप (कणों) से स्खलित विषधर जल (से सिंचित ) तथा प्रहतमृदंग मुखरित नागिनियों के द्वारा गीयमान- मंगल पार्श्वजिन को प्रणाम करो ।)
प्रवरसेन के 'सेतुबंध' का यह खास छंद है और संस्कृत काव्यों में भी भट्टिने 'रावणवध' के त्रयोदश सगँ में इसी छंद को चुना है।"
१. गाहो च उबन्ना सत्तावन्नाएण्य भन्नाए गाहा । विवरिया य विगाहा उग्गाहो सठ्ठिमत्तो य ॥
गाहिणि बासडीए चउसठ्ठीए य खंधओ भणिओ ए ए छव्व विगप्पा गाहाउंदे विनिाि ॥
२. कंटइअणूमिअंगी थोआत्थोओसरंतमुद्धसहावा । ( १२, २०)
रइअरचुंबिज्जंत ण णिअत्तेइ णलिणी मुहं विअ कमलं ॥ ( १२.२० ) (सेतु०)
३. चारुसमीरणरमणे, हरिणकलंक किरणावलीसविलासा । (१२, २०)
आवद्धराममोहा, वेलामूले विभावरी परिहीणा ॥ (१२, २०) ( भट्टि० १३.१ )
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गाथा लक्षण ६४.६५.
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